जरा सी चूक हुई नहीं कि चोट लगना तय है। आघात, प्रहार और हमला हमेशा इस ताक में ही रहते हैं कि मौका मिले आरै टूट पड़ें। गहरी जिंदगी जीने के अनुभवी तो यहां तक कहते हैं कि, कमजोरी तो खुद ही आक्रमणों को न्योता देती है। कहने का मतलब यह कि कमजोरी अथवा निर्बलता में शत्रुओं के लिये एक प्रकार का आकर्षण होता है। यह मात्र अनुभवों की ही नहीं बल्कि पूर्णत: मनोवैज्ञानिक सत्य भी है।
ठोकरें खा-खाकर इंसान थोड़ा संभल कर चलना सीख ही जाता है। वह अपने जान-माल की हिफाजत के लिये सजग और चौकन्ना रहने लगता है। किन्तु इंसान की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह कम महत्व की वस्तु की तो देख-रेख कर लेता है किन्तु अनमोल चीजों को भूल जाता है। उसकी ऐसी ही भूल है अपने व्यक्तित्व की अनदेखी करना। मनुष्य को ईश्वर ने पांच इंद्रियां दी हैं जो सहायक बनकर काम आती हैं। ये पांचों इंद्रिया ही वे पांच दरवाजे हैं जिनसे होकर, व्यक्तित्व को नष्ट करने वाले शत्रु प्रवेश करते हैं। ये दरवाजे कुछ इस तरह हैं-
१. नेत्र- आखों से होकर ही ऐसे दृश्य आते हैं जो विकृति पैदा करते हैं।
२. कान- इनसे होकर ही वे शब्द घुसते हैं जो मस्तिष्क को अशांत करते हैं।
३. जीभ- इसकी रजामंदी से वे चीजें शरीर में चली जाती हैं जिनका जाना उचित नहीं था।
४. नाकिका- इसकी लापरवाही से ही व्यक्तित्व दुर्गंधों का आदि हो गया।
५. त्वचा- न छूने लायक के स्पर्श की अनुमति मन को देकर पवित्रता को नष्ट इसी से होकर किया गया।
अत: यदि कोई अपने व्यक्तित्व का घातक शत्रुओं से बचाना चाहे तो उसे इन पांचों दरवाजों पर कड़ा पहरा रखना होगा।
साभार भास्कर
ठोकरें खा-खाकर इंसान थोड़ा संभल कर चलना सीख ही जाता है। वह अपने जान-माल की हिफाजत के लिये सजग और चौकन्ना रहने लगता है। किन्तु इंसान की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह कम महत्व की वस्तु की तो देख-रेख कर लेता है किन्तु अनमोल चीजों को भूल जाता है। उसकी ऐसी ही भूल है अपने व्यक्तित्व की अनदेखी करना। मनुष्य को ईश्वर ने पांच इंद्रियां दी हैं जो सहायक बनकर काम आती हैं। ये पांचों इंद्रिया ही वे पांच दरवाजे हैं जिनसे होकर, व्यक्तित्व को नष्ट करने वाले शत्रु प्रवेश करते हैं। ये दरवाजे कुछ इस तरह हैं-
१. नेत्र- आखों से होकर ही ऐसे दृश्य आते हैं जो विकृति पैदा करते हैं।
२. कान- इनसे होकर ही वे शब्द घुसते हैं जो मस्तिष्क को अशांत करते हैं।
३. जीभ- इसकी रजामंदी से वे चीजें शरीर में चली जाती हैं जिनका जाना उचित नहीं था।
४. नाकिका- इसकी लापरवाही से ही व्यक्तित्व दुर्गंधों का आदि हो गया।
५. त्वचा- न छूने लायक के स्पर्श की अनुमति मन को देकर पवित्रता को नष्ट इसी से होकर किया गया।
अत: यदि कोई अपने व्यक्तित्व का घातक शत्रुओं से बचाना चाहे तो उसे इन पांचों दरवाजों पर कड़ा पहरा रखना होगा।
साभार भास्कर
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