शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

भागवत: 18- मन की नहीं बुद्धि की बात मानें

अपनी उल्टी सोच के कारण आत्मदेव की पत्नी धुंधुली फल खाने को लेकर संशय में पड़ गई। धुंधुली की एक बहन थी। उसने वह फल बहन को खाने को दिया। बहन ने कहा मैं तो हूं गर्भवती और किसी को फल खिला देते हैं। मेरा जो बच्चा होगा वो तू रख लेना, पति को झूठ बोल देना। दोनों ने वह फल गाय को खिला दिया। बहन के यहां जो संतान हुई वह उसने धुन्धुली को दे दी।

जब गाय ने फल खाया तो गाय को एक ऐसे पुत्र का जन्म हुआ जिसके कान गाय की तरह थे। उसका नाम गोकर्ण रखा। जो बहन का बेटा था इसका नाम धुंधुकारी रखा। धुंधुकारी बहुत ही अत्याचारी, अपवित्र आचरण का व्यक्ति था। माता-पिता को मारता, घर की सारी दौलत ठिकाने लगा दी। दु:खी होकर एक दिन पिता तो जंगल में चले गए और मां मर गई। पांच वैश्याओं को अपने घर ले आया। पांच वैश्याओं ने कहा और धन लाओ तो धुंधुकारी ने राजा का धन चुरा लिया। वैश्याओं ने सोचा राजा का मामला है। हम पकड़े जाएंगे तो वैश्याओं ने धुंधुकारी को मार डाला और गाढ़ दिया। वैश्याएं चली गईं। धुंधुकारी प्रेत बन गया ।
कथा का सार है कि आत्मदेव हम हैं यानि मनुष्य और आत्मदेव की पत्नी का नाम धुन्धुली था जो कि बुद्धि है। उसकी बहन थी मन। मन का कहना बुद्धि ने माना और उल्टा काम हो गया। हमारी बुद्धि जब मन का कहना मानेगी तो जीवन बिगड़ जाएगा। सारा खेल मन का है। जब मन बुद्धि को नियंत्रित करने लगे तो गए काम से। होना ये चाहिए कि बुद्धि से मन नियंत्रित हो। मन तो गलत काम सिखाता ही है।
इस तरह आत्मदेव व धुंधली का सारा जीवन बिखर गया। जबकि गोकर्ण बड़ा संत प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपने भाई को प्रेत बना जब देखा तब उसने अपने भाई को भागवत सुनाई तो धुंधुकारी मुक्त हो गया।

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