रविवार, 22 अगस्त 2010

भागवत: 54; -कन्या को ईश्वर का वरदान समझें

विदुरजी को मैत्रेयजी बता रहे हैं ऐसे ब्रह्मांड की रचना की गई। जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की और इतने सारे मानस पुत्र पैदा हो गए। तब भगवान ने ब्रह्माजी से कहा- आपको मनुष्यों की सृष्टि पैदा करनी पड़ेगी जैसे ही भगवान ने संकेत दिया ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हुए। एक भाग स्त्री के रूप में तथा दूसरा पुरूष के रूप में पैदा हुआ। पुरूष मनु तथा स्त्री शतरूपा रूप में जानी गईं। ब्रह्मा ने उन्हें संतानोपत्ति की आज्ञा दी। उनको तीन बेटियां पैदा हुईं आकुति, देवहुति और प्रसूति तथा दो पुत्र पैदा हुए उत्तानपाद और प्रियव्रत।

संत कहते हैं कि पहले तीन कन्याएं हुईं और बाद में हुए पुत्र। भगवान भी ये घोषणा करते हैं कि मुझे जब अवसर मिलता है तो मैं पहले कन्या देना पसंद करता हूं। जिन लोगों के घर में कन्या पैदा हो और वे दु:ख मनाए तो यह भगवान के निर्णय के प्रति पाप है। यहां से वे बताते हैं कि जब मनुष्य पैदा हुए तो मनु शतरूपा ने कहा कि ये हमारे बेटे-बेटी सब पैदा हुए हैं तो इनको हम कहां रखेंगे। पृथ्वी तो रसातल में जा चुकी है और हिरण्याक्ष नाम का राक्षस उसको बाहर नहीं लाने दे रहा है। तब भगवान ने वराह अवतार लिया और जब पृथ्वी को बाहर लाए तथा हिरण्याक्ष को मारा। तब एक प्रश्न खड़ा हुआ कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु कहां से आए।
परीक्षित ने शुकदेव से पूछा, विदुर ने मैत्रेयजी से पूछा। उन्होंने कहा एक ऋषि थे कश्यप। उनकी पत्नी थीं दिति। वे एक दिन संध्या को कामांध होकर अपने पति के पास पहुंचीं। उन्होंने कहा मुझे आपसे इसी समय एक पुत्र चाहिए। ऋषि ने कहा दाम्पत्य में पति-पत्नी के बीच भोग का भी एक अनुशासन होना चाहिए। आप गलत समय संतान की मांग कर रही हैं लेकिन वो हठ पर अड़ गई । ऋषि ने उनकी इच्छा पूरी की और उनके गर्भ में दो पुत्र आए हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु।