रविवार, 22 अगस्त 2010

रक्षाबंधन

शुभ घड़ियां
सावन माह के पूर्णिमा को रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाएगा। यहां बताए जा रहे हैं, वह शुभ मुहूर्त जब बहन और भाई दोनों रक्षा सूत्र के बंधन में बंधकर शुभ फल पा सकते हैं।
इस बार रक्षाबंधन श्रावण मास, धनिष्ठा नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि, शोभन योग और मंगलवार के दिन मनाया जाएगा।

- ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भद्रा होने पर रक्षाबंधन अशुभ फल देता है। इसलिए इस दिन भद्राकाल में यह पर्व न मनाएं। भद्रा काल दिनांक 23 अगस्त की रात 8.08 बजे से शुरु होकर दिनांक 24 अगस्त की सुबह 9.22 बजे तक रहेगा। भद्राकाल की समाप्त होने के बाद रक्षाबंधन लगभग पूरे दिन शुभ योग लिए हुए हैं।
- रक्षाबंधन के लिए श्रेष्ठ शुभ मुहूर्त भद्राकाल के बाद सुबह 10.35 बजे से दोपहर 1.35 बजे तक लाभ, अमृत का योग है।
- इसके बाद दोपहर 3.32 बजे से 4.32 बजे तक शुभ का चौघडिय़ा है।
- रात्रि में रक्षाबंधन का विचार कर रहें लोगों के लिए रात्रि 8.10 बजे से 10.35 बजे तक का समय श्रेष्ठ रहेगा। रात्रि 10.35 बजे पूर्णिमा तिथि समाप्त हो जाएगी।
किसी कारणवश इन मुहूर्त में रक्षाबंधन न किया जा सके, तो इस बार भद्राकाल के बाद पूरा दिन ही रक्षाबंधन में किसी प्रकार से बाधक नहीं है।

रिश्तों की रक्षा का है यह सूत्र
सावन माह की पूर्णिमा को रक्षाबंधन (24 अगस्त) का पर्व मनाया जाता है। जन-जन में यह पर्व भाई-बहन के रिश्तों का अटूट बंधन और स्नेह का विशेष अवसर माना जाता है।
दरअसल रक्षाबंधन भारतीय धार्मिक परंपराओं में ऐसा पर्व है, जो न केवल भाई-बहन वरन हर सामाजिक संबंध को मजबूत करने की भावना से भरा है। इसलिए इस पर्व को मात्र भाई-बहन के संबंध से जोडऩा इसके महत्व को सीमाओं में बांधना है।
यह पर्व गहरे सांस्कृतिक, सामाजिक अर्थ लिए हुए हैं। इस त्यौहार के अर्थ को समझने के लिए रक्षा बंधन का मतलब जानना जरुरी है। प्रेम, स्नेह और संस्कृति की रक्षा का पर्व ही रक्षा बंधन है। यह एक-दूसरे की रक्षा के वचन का अवसर है। यह भावनाओं और संवेदनाओं का बंधन है। बंधन का भाव ही यह है कि एक को दूसरे से बांधना। ऐसा बंधन कोई भी किसी को भी बांध सकता है।
भाई-बहन के अलावा रक्षा सूत्र गुरु-शिष्य, भाई-भाई, बहन-बहन, मित्र, पति-पत्नी, माता-पिता-संतान, सास-बहू, ननद-भाभी और भाभी-देवर एक-दूसरे को बांध सकते हैं। क्योंकि बंधन का भाव ही यह होता है कि एक-दूसरे के लिए हमेशा प्यार, विश्वास और समर्पण रखना।
पुराण और इतिहास के अनेक प्रसंग साबित करते हैं कि पत्नी अपने पति की रक्षा के लिए रक्षासूत्र बांधती थी। लेकिन समय और परंपराओं में बदलाव के साथ यह भाई और बहन के संबंधों के अर्थ में ही प्रचलित हो गया।
वास्तव में बंधन और नियम पालन से ही सभ्य समाज बनता है। इससे ही हर संस्कृति को सम्मान मिलता है। रक्षा बंधन भी अपनत्व और प्यार के बंधन से रिश्तों को मज़बूत करने का पर्व है। बंधन का यह तरीका ही भारतीय संस्कृति को दुनिया की अन्य संस्कृतियों से ऊपर और अलग पहचान देता है।

पंचक नहीं होता है बाधक
रक्षाबंधन पर्व पर जब मूहुर्त देखें जाते हैं तो पंचक की जानकारी के अभाव में भय और संशय के कारण इस समय को अशुभ मानकर टाला जाता है। जबकि शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि रक्षाबंधन जैसे पर्व पर पंचक काल का होना अशुभ नहीं है।

इस बार भी पंचक काल रक्षाबंधन यानि २४ अगस्त को प्रात: ७.३३ बजे से शुरु होकर २९ तारीख तक रहेगा। किंतु यह रक्षाबंधन पर्व मनाने में किसी प्रकार से बाधक नहीं है। क्योंकि पंचक काल में नहीं किए जाने वाले कार्य शास्त्रों साफ तौर पर बताए गए हैं। इसलिए जानते हैं क्या होता है पंचक और इस काल में कौन-कौन से कार्य अशुभ माने जाते हैं -
पंचक चंद्रमा की राशि विशेष में स्थिति और विशेष नक्षत्रों का योग होता है। पंचक की अवधि कुंभ राशि में चंद्रमा में आने से लेकर मीन राशि में चंद्रमा के पूर्ण काल बिताने तक होती है। इस अवधि में पांच नक्षत्रों का भी योग बनता है। जिसकी शुरुआत धनिष्ठा नक्षत्र से होती है। पंचक धनिष्ठा नक्षत्र के चार में से दो चरण छोड़कर यानि आधा धनिष्ठा नक्षत्र से आरंभ होता है। इसके बाद क्रम से शतभिषा, पूर्वा भाद्रा, उत्तरा भाद्रा और रेवती नक्षत्र के योग बनते हैं। दूसरे शब्दों में धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती पंचक नक्षत्र माने जाते हैं।
शास्त्रों में पंचक काल में दाह संस्कार, दक्षिण दिशा की यात्रा, लकड़ी से संबंधित कार्य, घास इकट्ठा करना, मकान की छत भरवाना और पंलग, चारपाई, भट्टी बनवाने जैसे कार्य ही अशुभ माने गए हैं। इनके शमन के भी शास्त्रों में उपाय बताए गए हैं। शेष कार्य और उत्सव या पर्व परंपराएं आदि बिना संशय के पूरी की जा सकती है।
इसलिए रक्षाबंधन पर शुरु होने वाले पंचक को लेकर बिना किसी भय और बाधा का विचार कर उत्साह और उमंग से यह पर्व मनाएं।

भद्रा क्यों है रक्षाबंधन पर अशुभ?
हर वर्ष रक्षाबंधन या श्रावणी पर्व मनाने के लिए शुभ मूहुर्त जरुर देखे जाते हैं। इनमें राखी बंधवाने के लिए भद्रा की स्थिति को विशेष रुप से देखा जाता है। शास्त्रों में भी रक्षाबंधन भद्राकाल में अशुभ माना गया है। जानते हैं क्यों भद्रा काल में मंगल कार्य या उत्सव नहीं किया जाता और इस बार रक्षाबंधन के दिन भद्रा काल कब है -
पुराणों में भद्रा को भगवान सूर्य देव की पुत्री और शनिदेव की बहन बताया गया है। अपने भाई शनि की तरह ही इसका स्वभाव भी क्रूर बताया गया है। उसकी उग्रता को रोकने के लिए ही भगवान ब्रह्मा ने उसे कालगणना या पंचाग के एक प्रमुख अंग करण में स्थान दिया। जिसे विष्टि कहा जाता है।

हिन्दू पंचांग के पांच प्रमुख अंग तिथि, वार, योग, नक्षत्र के साथ करण भी एक महत्वपूर्ण अंग होता है। यह तिथि का आधा भाग होता है। करण की संख्या ग्यारह होती है। इन ग्यारह करणों में सातवां करण विष्टि का नाम ही भद्रा है।
धर्मग्रंथो और ज्योतिष विज्ञान के अनुसार अलग-अलग राशियों के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में घूमती है। इसी दौरान जब चन्द्रमा कर्क, सिंह, कुंभ व मीन राशि में विचरण करता है और उसके साथ भद्रा यानि विष्टी करण का योग होता है, तब भद्रा का निवास पृथ्वीलोक में होता है। इसी दौरान उसकी उपस्थिति सभी शुभ कार्यों में बाधक या उनका नाश करने वाली मानी गई है।
इस बार रक्षाबंधन २४ अगस्त को चंद्रमा कुंभ राशि में जाएगा और इसके साथ भद्रा का योग भी बन रहा है। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार इस दिन भद्रा का मुख सामने की ओर होगा। यह काल मंगल कार्यों के आरंभ या अंत के लिए अशुभ और कार्य का नाश करने वाला माना जाता है।
इस बार भद्रा काल रक्षाबंधन के एक दिन पहले २३ तारीख की रात ८.०८ बजे से शुरु होकर २४ तारीख की प्रात: ९.२२ बजे तक है। इसलिए इस काल के बाद ही रक्षाबंधन का शुभ मुहूर्त प्रारंभ होगा, जो रात्रि में पूर्णिमा की समाप्ति तक रहेगा।

पहला रक्षासूत्र पत्नी ने बांधा पति को

हिन्दू पंचांग के सावन माह की पूर्णिमा (इस बार 24 अगस्त)को भाई और बहन के प्यार का प्रतीक रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है। इस दिन बहन अपने भाई की कलाई में राखी बांधती है और उसकी लंबी आयु और सुख की कामना करती हैं ताकि संकट के समय वह अपनी बहन की मदद कर सके। किंतु क्या आप जानते हैं, आज जिस पर्व को हम भाई-बहन के रिश्तों का खास दिन मानते हैं, उसकी परंपरा पत्नी द्वारा पति को रक्षा सूत्र बांधने से शुरु हुई। जानते हैं कौन थी वह पत्नी जिसने अपने पति को पहला रक्षा सूत्र बांधा -
पौराणिक मान्यता है कि रक्षा सूत्र बांधने की पंरपरा की शुरुआत देवराज इंद्र की पत्नी शचि ने की थी। जब देव और दानवों के बीच युद्ध चल रहा था। देवताओं की हार करीब थी। इस हार का अर्थ था स्वर्ग पर असुरों का राज। तब इंद्र की पत्नी शची देवगुरु बृहस्पति के पास गई। तब देवगुरु ने राजा इंद्र और देवताओं की जीत के लिए शची को एक रक्षासूत्र दिया। उन्होंने उसे राजा इंद्र की दाहिने हाथ की कलाई पर बांधने को कहा।
रानी शची ने राजा इंद्र के दाहिने हाथ में रक्षा सूत्र और चांवल-सरसों को बांधकर उनकी सुरक्षा और विजय की कामना की थी जिससे वे असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे। धार्मिक मान्यताओं में यह दिन सावन माह की पूर्णिमा को माना जाता है।