मंगलवार, 10 अगस्त 2010

क्रोधी न बनें ऋषि दुर्वासा की तरह

भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। ऋषि दुर्वासा अत्यधिक क्रोधी स्वभाव के थे। छोटी-छोटी बातों से नाराज होकर वे श्राप दे देते थे। इस अवतार से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कभी भी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। शक्ति का दुरुपयोग करने से स्वयं का बल भी क्षीण होता है। क्रोध पर नियंत्रण रखकर ही हम सभी के विश्वासपात्र तथा स्नेही बन सकते हैं। अत: भगवान शंकर के ऋषि दुर्वासा अवतार से हमें क्रोध न बनने की सीख लेनी चाहिए।

महर्षि अत्रि के पुत्र थे दुर्वासा
सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश् तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए जो देवताओं के द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।शास्त्रों में इसका उल्लेख है-
अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान्॥ -भागवत 4/1/15
अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।

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