इतिहास में ४१ लड़ाइयों में विजेता बाजीराव प्रथम (१७००-१७४०) चिर विजेता सेनापति रहे। उनके सैनिक जीवन का मूल्यांकन मराठों के सैनिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ही करना होगा। शिवाजी (१६३०-१६८०) की मृत्यु के बाद मराठों ने औरंगजेब के विरुद्ध जो दीर्घ (१६२१-१७०७) व भीषण संघर्ष किया, अपने से तिगुनी मुगल सेना को पराजित किया व औरंगजेब महाराष्ट्र में थका-हारा मृत्यु को प्राप्त हुआ (१७०७)। इस संघर्ष में तपे मराठा सेनापतियों से बाजीराव ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सीखा।
यह तो थी बाजीराव की सैनिक पृष्ठभूमि, साथ में उनकी पारिवारिक शिक्षा का भी महत्व है। उनके पिता प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ भट्ट (१६६०-१७२०) से उन्होंने कूटनीति के दाँव-पेंच सीखे जिन्होंने मराठा-मुगल संबंधों में सफल भूमिका निभाकर दिल्लीClick here to see more news from this city में मराठा वर्चस्व की नींव रखी। साथ में बाजीराव की माता ने भी पुत्र को धार्मिक शिक्षा के साथ श्रेष्ठ स्तर की सैनिक शिक्षा दिलवाई। इस दृष्टि से राधाबाई, दूसरी जीजाबाई (शिवाजी माता) सिद्ध हुईं। इस तरह तैयार बाजीराव के गुणों को शिवाजी पौत्र शाहू ने जानकर उन्हें २० वर्ष से कुछ कम आयु में ही पेशवा बनाया। इस पर उठी आपत्तियाँ स्वतः रद्द हो गईं जब बाजीराव ने निजाम आसिफजाह को पालखेड़ (औरंगाबाद के पास) में धावक युद्ध में हराया (१७२८)।
इस युद्ध का महत्व इसलिए है कि मात्र २८ वर्ष से कम आयु में बाजीराव ने ५६ वर्ष के आसिफजाह को पराजित किया जिसके पास दीर्घ सैनिक अनुभव व द. भारत का सर्वश्रेष्ठ तोपखाना था जबकि बाजीराव के पास मात्र फुर्तीला अश्व दल था। इस युद्ध से बाजीराव की सैनिक सूझबूझ का सिक्का जमा। विशेष यह कि घोर युद्ध में अपने सैनिक न गँवाते हुए तेज चालों से युद्ध कैसे जीतना, यह बाजीराव ने बताया। साथ में तोपखाने के निर्णायक तत्व होने पर भी उन्होंने प्रश्नचिह्न लगाया।
पालखेड़ विजय पर जन. मांटगॉमेरी ने बाजीराव की प्रशंसा की। ऐसा ही धावक युद्ध शिवाजी ने मुगलों के विरुद्ध साल्हेर मुल्हेर (गुजरात-खानदेश सीमा) में किया था, जब उन्होंने सूरत लूटकर महाराष्ट्र को प्रयाण किया (१६६४ ई.)। संभव है बाजीराव को इसका ज्ञान हो। शिवाजी की सैनिक नीति का विकास बाजीराव ने किया। उन्होंने घातलगाऊ छापामारी को छोड़ा परंतु उसके मुख्य तत्व गति आश्चर्य व मर्मांतक प्रहार को लेकर धावक-युद्ध शैली बनाई।
बाजीराव का अगला अभियान उत्तर की ओर था। १७२८ की वर्षा पश्चात उन्होंने नर्मदा पार की। उसी समय अनुज चिलाजी ने मांडू के पास व बाजीराव ने पूर्व की ओर से नर्मदा पार की। उस समय मराठा का पुराना मित्र छत्रसाल, अलाहाबाद के महंमद बंगरा पठान से लड़ रहा था। अपनी वृद्धावस्था से वह दुर्बल व परेशान था। अंततः उसने बाजीराव से सहायता माँगी तब बाजीराव गढ़ा स्थान में था। याचना के पद्यांश हैं-
जो गति ग्राह गजेंद्र की सो गति जानहुं आज, बाजी जात बुंदेलन की बाजी राखो लाज- और दुस्थिति ऐसी लक्ष्मी करत हा हा चीं करत गजराज, गोली लागत पहले पीछे आत आवाज।
भारतीय युद्धशास्त्र के अध्येताओं ने इस सेनापति का उच्च मूल्यांकन किया है। गतिशील अश्व दल के इस नायक ने फ्रेडरिक एंगेल्स का यह कथन सत्य सिद्ध किया कि "वेगयुक्त सेना, स्थिर सेना से चौगुनी प्रभावी होती है।" उसके नेतृत्व में नए मराठा सेनापति, मल्हारराव होलकर, राणोजी शिंदे, गायकवाड़, उदयजी पवार आदि तैयार हुए। देश हो या विदेश, युद्धशास्त्र तो एक ही है- अतः यह बाजीराव ने सिद्ध किया कि "बाध्य स्थितियाँ वस्तुगत हैं- परंतु मानव सोच आत्मगत है- अतः वस्तुगत पृष्ठभूमि के रंगमंच पर कुशल सेनापति रंग व प्रकाश से परिपूर्ण कई नाटक खेल सकता है"- बाजीराव ने अनजाने में इस माओवाक्य को चरितार्थ किया।
यह तो थी बाजीराव की सैनिक पृष्ठभूमि, साथ में उनकी पारिवारिक शिक्षा का भी महत्व है। उनके पिता प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ भट्ट (१६६०-१७२०) से उन्होंने कूटनीति के दाँव-पेंच सीखे जिन्होंने मराठा-मुगल संबंधों में सफल भूमिका निभाकर दिल्लीClick here to see more news from this city में मराठा वर्चस्व की नींव रखी। साथ में बाजीराव की माता ने भी पुत्र को धार्मिक शिक्षा के साथ श्रेष्ठ स्तर की सैनिक शिक्षा दिलवाई। इस दृष्टि से राधाबाई, दूसरी जीजाबाई (शिवाजी माता) सिद्ध हुईं। इस तरह तैयार बाजीराव के गुणों को शिवाजी पौत्र शाहू ने जानकर उन्हें २० वर्ष से कुछ कम आयु में ही पेशवा बनाया। इस पर उठी आपत्तियाँ स्वतः रद्द हो गईं जब बाजीराव ने निजाम आसिफजाह को पालखेड़ (औरंगाबाद के पास) में धावक युद्ध में हराया (१७२८)।
इस युद्ध का महत्व इसलिए है कि मात्र २८ वर्ष से कम आयु में बाजीराव ने ५६ वर्ष के आसिफजाह को पराजित किया जिसके पास दीर्घ सैनिक अनुभव व द. भारत का सर्वश्रेष्ठ तोपखाना था जबकि बाजीराव के पास मात्र फुर्तीला अश्व दल था। इस युद्ध से बाजीराव की सैनिक सूझबूझ का सिक्का जमा। विशेष यह कि घोर युद्ध में अपने सैनिक न गँवाते हुए तेज चालों से युद्ध कैसे जीतना, यह बाजीराव ने बताया। साथ में तोपखाने के निर्णायक तत्व होने पर भी उन्होंने प्रश्नचिह्न लगाया।
पालखेड़ विजय पर जन. मांटगॉमेरी ने बाजीराव की प्रशंसा की। ऐसा ही धावक युद्ध शिवाजी ने मुगलों के विरुद्ध साल्हेर मुल्हेर (गुजरात-खानदेश सीमा) में किया था, जब उन्होंने सूरत लूटकर महाराष्ट्र को प्रयाण किया (१६६४ ई.)। संभव है बाजीराव को इसका ज्ञान हो। शिवाजी की सैनिक नीति का विकास बाजीराव ने किया। उन्होंने घातलगाऊ छापामारी को छोड़ा परंतु उसके मुख्य तत्व गति आश्चर्य व मर्मांतक प्रहार को लेकर धावक-युद्ध शैली बनाई।
बाजीराव का अगला अभियान उत्तर की ओर था। १७२८ की वर्षा पश्चात उन्होंने नर्मदा पार की। उसी समय अनुज चिलाजी ने मांडू के पास व बाजीराव ने पूर्व की ओर से नर्मदा पार की। उस समय मराठा का पुराना मित्र छत्रसाल, अलाहाबाद के महंमद बंगरा पठान से लड़ रहा था। अपनी वृद्धावस्था से वह दुर्बल व परेशान था। अंततः उसने बाजीराव से सहायता माँगी तब बाजीराव गढ़ा स्थान में था। याचना के पद्यांश हैं-
जो गति ग्राह गजेंद्र की सो गति जानहुं आज, बाजी जात बुंदेलन की बाजी राखो लाज- और दुस्थिति ऐसी लक्ष्मी करत हा हा चीं करत गजराज, गोली लागत पहले पीछे आत आवाज।
भारतीय युद्धशास्त्र के अध्येताओं ने इस सेनापति का उच्च मूल्यांकन किया है। गतिशील अश्व दल के इस नायक ने फ्रेडरिक एंगेल्स का यह कथन सत्य सिद्ध किया कि "वेगयुक्त सेना, स्थिर सेना से चौगुनी प्रभावी होती है।" उसके नेतृत्व में नए मराठा सेनापति, मल्हारराव होलकर, राणोजी शिंदे, गायकवाड़, उदयजी पवार आदि तैयार हुए। देश हो या विदेश, युद्धशास्त्र तो एक ही है- अतः यह बाजीराव ने सिद्ध किया कि "बाध्य स्थितियाँ वस्तुगत हैं- परंतु मानव सोच आत्मगत है- अतः वस्तुगत पृष्ठभूमि के रंगमंच पर कुशल सेनापति रंग व प्रकाश से परिपूर्ण कई नाटक खेल सकता है"- बाजीराव ने अनजाने में इस माओवाक्य को चरितार्थ किया।