मंगलवार, 31 अगस्त 2010

कर्म का संदेश देती है गीता

भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव भादौ मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को बड़ी श्रृद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। आध्यात्म की दृष्टि से देंखे तो यह दिन कर्म का दिन है क्योंकि श्रीकृष्ण ने ही सर्वप्रथम निष्काम कर्म का संदेश गीता के माध्यम से अर्जुन को दिया था। इसीलिए श्रीकृष्ण को कर्मयोगी की संज्ञा भी दी गई। गीता को हिंदू धर्म में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है। गीता के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी।

वास्तव में यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण कलयुग के मापदंड को ध्यान में रखते हुए ही दिया है। कुछ लोग गीता को वैराग्य का ग्रंथ समझते हैं जबकि गीता के उपदेश में जिस वैराग्य का वर्णन किया गया है वह एक कर्मयोगी का है। कर्म भी ऐसा हो जिसमें फल की इच्छा न हो अर्थात निष्काम कर्म। गीता में यह कहा गया है कि निष्काम काम से अपने धर्म का पालन करना ही निष्कामयोग है।
इसका सीधा का अर्थ है कि आप जो भी कार्य करें, पूरी तरह मन लगाकर तन्मयता से करें। फल की इच्छा न करें। अगर फल की अभिलाषा से कोई कार्य करेंगे तो वह सकाम कर्म कहलाएगा। गीता काउपदेश कर्मविहिन वैराग्य या निराशा से युक्त भक्ति में डूबना नहीं सीखाता वह तो सदैव निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देता है।

क्यों कान्हा खाए माखन?

कान्हा यानि श्रीकृष्ण माखन चोर के नाम से प्रसिद्ध हैं। क्योंकि कान्हा को माखन सबसे प्रिय है। किंतु माखन खाने के लिए चोरी जैसा काम करने पर भी भगवान को माता से लेकर गोकुलवासियों का स्नेह और प्यार मिला। यहां तक कि आज भी उनको इसी बाललीला के कारण बालकृष्ण रुप में घर-घर पूजा जाता है। इसलिए यह जानना जरुरी है कि लीलाधर श्रीकृष्ण ने माखन खाकर जगत को क्या संदेश दिया -

दरअसल मक्खन की प्रकृति स्निग्ध यानि चिकनी और स्नेहक यानि ठंडक पहुंचाने वाली होती है। स्नेहक शब्द भी स्नेह से बना है। इसका मतलब हुआ कि मक्खन स्नेह यानि प्रेम, प्यार का ही प्रतीक है। बालकृष्ण के माखन खाने के पीछे यही संदेश है कि बचपन से ही हम बच्चों के जीवन में प्रेम उतारें यानि परिवार में उनसे बोल, व्यवहार और संस्कार में प्रेम ही शामिल हो। क्योंकि अच्छे या बुरे संस्कार ही बाल मन पर सीधा असर करते हैं। जिससे जीवनभर उसका अच्छा चरित्र, व्यवहार और जीवन नियत होता है।
व्यावहारिक जीवन में भी प्रेम ही ऐसा तरीका माना जाता है कि जिससे किसी का भी दिल जीता जा सकता है। विरोध में भी समर्थन मिल सकता है। इस तरह प्रेम भी भी मक्खन की तरह ठंडक पहुंचाता है। मक्खन का एक ओर गुण है कि वह गर्मी पाकर पिघलता है। ठीक इसी तरह प्रेम, स्नेह और प्यार से भी कठोर और नफरत भरे मन पिघल जाता है। इसे बोलचाल में दिल चुराना भी कहा जाता है।
इस तरह बालकृष्ण का मक्खन खाने का यही संदेश है कि वाणी से लेकर आचरण तक हर रुप में प्रेम में घुल जाएं। वैसे लोकभाषा में प्रचलित मक्खन लगाना या मक्खन की तरह पिघलना जैसे जुमलों के पीछे भी मूल भाव प्रेम ही है।

काम नहीं काम विजय लीला
भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्त्तम कहलाते हैं। क्योंकि पूरे जीवन की गई श्रीकृष्ण की लीलाओं में कोई लीला मोहित करती है तो कोई अचंभित करती है। लेकिन हर लीला जीवन से जुड़े कोई न कोई संदेश देती है।

भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं में से रासलीला हर किसी के मन में उत्सुकता और जिज्ञासा पैदा करती है। किंतु युग के अन्तर और धर्म की गहरी समझ के अभाव से पैदा हुई मानसिकता के कारण रासलीला शब्द को लंपटता या गलत अर्थ में उपयोग किया जाता है। खासतौर पर स्त्रियों से संबंध रखने और उनके साथ रखे जाने वाले व्यवहार के लिए रासलीला के आधार पर अनेक युवा भगवान कृष्ण को आदर्श बताने का अनुचित प्रयास करते हैं।

इसलिए यहां खासतौर पर युवा जाने कि रासलीला से जुड़ा व्यावहारिक सच क्या है -

दरअसल श्रीकृष्ण की रासलीला जीवन के उमंग, उल्लास और आनंद की ओर इशारा करती है। इस रासलीला को संदेह की नजर से सोचना या विचार करना इसलिए भी गलत है, क्योंकि रासलीला के समय भगवान श्रीकृष्ण की उम्र लगभग ८ वर्ष की मानी जाती है और उनके साथ रास करने वाली गोपियों में बालिकाओं के साथ युवतियां यहां तक कि बड़ी उम्र की भी गोपियां शामिल थीं। इसलिए जबकि कलयुग में भी इतनी कम उम्र में बालक के व्यवहार में यौन इच्छाएं नहीं देखी जाती तो फिर कृष्ण के काल द्वापर में कल्पना करना व्यर्थ है। इस तरह गोपियों का कान्हा के साथ रास पवित्र प्रेम था।

जिस तरह रामायण में श्रीराम के साथ शबरी और केवट इच्छा और स्वार्थ से दूर प्रेम मिलता है, ठीक उसी तरह का प्रेम रासलीला में कृष्ण और गोपियों का मिलता है।

इसलिए रासलीला के अर्थ के साथ मर्म को समझें तो यही बात सामने आती है कि भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों के संग रासलीला काम नहीं काम विजय लीला है, जो भोग नहीं योग से जीवन को साधने का संदेश देती है।

श्रीकृष्ण ने ऐसे भी बताया जीवन का रहस्य
महाभारत के युद्ध के बाद जब अश्वत्थामा ने सोए हुए द्रोपदी के पुत्रों का वध किया था तब उसका प्रतिशोध लेने के लिए अर्जुन व श्रीकृष्ण अश्वत्थामा के पीछे गए। घबराकर अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से अर्जुन जीवित रहे। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़कर उसके मस्तक की मणि निकाल ली। गुरुपुत्र होने के कारण पाण्डवों ने उसके प्राण नहीं लिए।

अपने अपमान से झुब्ध होकर अश्वत्थामा ने एक बार फिर पुन: धरती को पाण्डवविहिन करने के उद्देश्य से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया यह ब्रह्मास्त्र जाकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ पर लगा। जिससे उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को प्राणों का भय हो गया। तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के वंश को विनाश से बचाने के लिए सुक्ष्म रूप धारण किया तथा उत्तरा के गर्भ में जाकर ब्रह्मास्त्र के तेज से उस बालक की रक्षा की। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण ने परीक्षित के प्राणों की रक्षा की तथा पाण्डवों के वंश का नाश होने से बचाया।
यही राजा परीक्षित बाद में श्रीमद्भागवद् के माध्यम से जगत को धर्म के माध्यम से जीवन जीने के सूत्र पहुंचाने के प्रमुख पात्र बने। इस तरह कर्म का संदेश देने वाली गीता के साथ ही जीवन के रहस्य उजागर करने वाली श्रीमद्भागवत धर्म भी श्रीकृष्ण की कृपा से जगत में पहुंचा।