शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

भागवत: ३६ से ४० -भक्तों को दिया वचन निभाते हैं भगवान

महाभारत के युद्ध के दौरान भीष्म ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया था कि जिस दिन मेरी मृत्यु हो, आप अवश्य उपस्थित रहना। श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाया। जब महात्मा भीष्म ने प्राणों का उत्सर्ग किया तो भगवान भी भावुक हो गए। सोचिए क्या दिव्य मृत्यु रही होगी कि जिसकी मृत्यु पर भगवान आंसू बहाने लगे। ऐसी भीष्म की मृत्यु हुई। प्रथम स्कंध में भीष्म का चरित्र भागवत के ग्रंथकार सुना रहे हैं। भीष्म का गमन हुआ। भीष्म को भगवान ने विदा किया। भगवान श्रीकृष्ण महाभारत को समाप्त करके जा रहे हैं।
भगवान ने कहा मेरा समय हुआ, मुझे द्वारिका जाना है। भगवान द्वारिका जाने लगे और पांडवों से कहा कि- देखो अब तुम लोग अपना जीवन आरंभ करना। युधिष्ठिर का राजतिलक करके श्रीकृष्ण द्वारिका गए। वहां की जनता ने उनकी रथ यात्रा का दर्शन किया। यह वर्ण प्रथम स्कंध के 10 तथा 11वें अध्याय में आता है। बाहरवें अध्याय में परीक्षित के जन्म की कथा है। उत्तरा ने बालक को जन्म दिया और वह बालक जन्म लेते से ही उस चतुर्भुज रूप को खोजने लगा जिसे उसने अपनी माता के गर्भ में देखा था।
परीक्षित भाग्यशाली था कि उसको माता के गर्भ में ही भगवान के दर्शन हुए। यही कारण है कि वह उत्तम श्रोता है। युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों से पूछा कि यह बालक कैसा होगा? ब्राह्मणों ने कहा कि वैसे तो सभी ग्रह दिव्य हैं किंतु मृत्यु स्थान में कुछ त्रुटी है। इसकी मृत्यु सर्प दंश से होगी। यह सुनकर धर्मराज को दु:ख हुआ कि मेरे वंश का पुत्र सर्पदंश से मरेगा। पर ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि जो कुछ भी होगा उसी से इस बालक को सदगति मिलेगी।

क्यों हारे अर्जुन लुटेरों से ?
हम प्रथम स्कंध में चल रहे हैं। इसके सोलहवें अध्याय से परीक्षित का चरित्र आरंभ होता है। विदुरजी तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र में पहुंचे। विदुरजी महाभारत युद्ध के समय हस्तीनापुर छोड़ चुके थे। उन्हें खबर हुई कि सभी कौरवों का विनाश हो चुका है और धर्मराज युधिष्ठिर राजसिंहासन पर बैठै हैं। मध्यरात्रि के समय विदुरजी धृतराष्ट्र और गांधारी को लेकर वन में सप्त स्त्रोत तीर्थ चले गए।

यदुवंश की कथा आगे विस्तार से जानेंगे। अभी सिर्फ इतना कि भगवान ने जाते-जाते अर्जुन को अपने यदुवंश की स्त्रियां और संपत्ति सौंप दी और कहा कि तुम इनको लेकर हस्तिनापुर चले जाओ क्योंकि अब राक्षस लोग आक्रमण करेंगे, द्वारिका डूब जाएगी। अर्जुन उनको लेकर आ रहे थे कि रास्ते में लुटेरों ने हमला किया, अर्जुन हार गए। अर्जुन पराजित होकर आए। युधिष्ठिर ने देखा और पूछा अर्जुन तुम तो द्वारिका गए थे। भगवान श्रीकृष्ण व उनके परिवार के सदस्यों को लेने। क्या हुआ, तेरा चेहरा ऐसा डूबा हुआ क्यों है?
चेहरे का तेज कहां चला गया, वो ओज कहा चला गया जिसके लिए अर्जुन जाना जाता था? तू रोता-रोता सा क्यों दिखता है। अर्जुन ने कहा- भैया हम लूट गए। भगवान चले गए। वे स्वधाम जा चुके हैं। जब मैं कुछ स्त्रियों को लेकर आ रहा था लुटेरों ने मुझे लूट लिया। मैं गांडीव उठाता था तो मेरा शस्त्र नहीं उठता। मैं साधारण लुटेरों से हार गया। वो स्त्रियां ले गए, धन ले गए। मैं लुटापिटा आपके पास आया हूं ।

भगवान की उपस्थिति में ही बल है
लुटे-पिटे अर्जुन को देखकर युधिष्ठिर ने कहा-आज हमें समझ में आ गया हम पांडवों के पास कोई ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की थी। अरे तू जिस गांडीव से बड़े-बड़े योद्धाओं को पराजित करता था। वो लूटेरों से हार गया। तेरे गांडीव में ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की मौजूदगी में थी। जीवन में परमात्मा की मौजूदगी की ही ताकत है। उसके जाते ही हम बेकार हो जाएंगे इसलिए निर्भय बने रहिए उसका बल हमारे साथ है। यह बहुत सूत्र की बात है। भगवान को सदा अपने जीवन के केंद्र में रखिए।

अब पांडवों ने विचार किया चलो हम भी संसार त्यागते हैं। ऐसा कहते हैं कि पांडवों में सिर्फ ही युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग में गए थे। युधिष्ठिर अपने भाइयों व पत्नी द्रोपदी को साथ लेकर चले। स्वर्गारोहण के समय सबसे पहले द्रौपदी गिर गई। प्रश्न पूछा ये क्यों गिर गई? उत्तर मिला पांच पतियों में सबसे अधिक अर्जुन को प्रेम करती थी, भेदभाव रखती थी इसलिए इनका पतन सबसे पहले हुआ। उसके बाद सहदेव का पतन हुआ क्योंकि उनको ज्ञान का अभिमान था। नकुल का पतन हुआ क्योंकि उन्हें अपने रूप का अभिमान था। अर्जुन जब गिरे तो युधिष्ठिर ने कहा अर्जुन को अपने बल पर अभिमान था इसलिए अर्जुन भी स्वर्ग में सशरीर नहीं जा पाए।
अब बचे भीम और युधिष्ठिर। तो पहले भीम गिर गए। उसने पूछा मैं क्यों गिर गया भैया? तो उन्होंने कहा तू इसलिए गिर गया कि तू खाता बहुत था। अधिक खाना भी पाप है। भीम अधिक खाता था और अधिक सोता था। ये दो काम न करें ये पाप की श्रेणी में आते हैं। उसके बाद युधिष्ठिर स्वर्ग में गए। उन्होंने वहां भाइयों और पत्नी को देखा और सबको मुक्ति दिलाई। आगे भागवत के प्रमुख पात्र परीक्षित की कथा आएगी, जिसे कल जानेंगे।

धर्म के चार चरण होते हैं
पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राज करने लगे। उन्होंने धर्म के आधार पर प्रजापालन किया। तीन अश्वमेध यज्ञ किए। सब प्रसन्न थे उनके राज में। जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया वे सब उनमें प्रकट होने लगे थे। यथासमय उन्होंने उत्तर की कन्या दरावति से विवाह किया। जिससे जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए।

एक बार जब वे कहीं जा रहे थे तभी उन्हें एक लंगड़ा दुर्बल बैल और दुर्बल गाय दिखाई दी। वास्तव में वह बैल धर्म था और गाय के रूप में पृथ्वी थी। परीक्षित ने देखा की राजा का वेष धारण किए हुए एक शुद्र उन दोनों पर निरंतर चाबुक का प्रहार कर रहा है। वह राजा वेष धारण किए हुए और कोई नहीं साक्षात कलियुग था। राजा से अन्याय नहीं सहा गया। उन्होंने कलियुग का हाथ पकड़ लिया। पूछा कि इन निर्बलों को क्यों प्रताडि़त कर रहा है? परीक्षित को तब तक उनके रूप का ज्ञान नहीं था। तब बैल ने अपना परिचय दिया, गौ ने अपना परिचय दिया।
बैल रूपी धर्म का केवल एक ही पैर था शेष तीन पैर टूट चुके थे। धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, तप, पवित्रता, और दान। सतयुग में तो धर्म के चार चरण थे। फिर त्रेता में सत्य चला गया द्वापर में सत्य ओर तप न रहे और कलयुग में सत्य और तप के साथ पवित्रता भी चली गई। कलयुग में केवल दान और दया के सहारे धर्म रह गया। गाय रूपी पृथ्वी का शरीर जर्जर, केवल अस्थिपंजर रह गया था। तब राजा ने उनकी ये दुर्दशा देखी और प्रण किया कि आप लोग निश्चित रहिए मैं इस आततायी कलयुग का सर्वनाश करके रहूंगा।

कलयुग को अभयदान दिया परीक्षित ने
राजा परीक्षित की प्रतिज्ञा को जब कलयुग ने सुना तो वह भय से कांप उठा। वह राजा की शरण में आ गया। परीक्षित ने उसे अभय दान दे दिया। तब कलयुग ने कहा कि पद्धति के क्रम से मेरा भी समय आ गया है। आप मुझे रहने के लिए उचित स्थान दीजिए। तब परीक्षित ने कलयुग को मदिरा, जुआ, व्याभिचार और हिंसा इन चार स्थानों पर रहने की अनुमति दे दी। कलयुग ने फिर अनुनय विनय किया कि उसको एक और पंचवां स्थान दिया जाए। और वह पांचवां स्थान स्वर्ण था। राजा ने स्वीकृत कर लिया।
समय बीता और एक दिन ऐसा हुआ कि परीक्षित को जिज्ञासा हुई कि देखूं तो सही कि मेरे दादा ने मेरे घर में क्या-क्या रख छोड़ा है ? एक पेटी में स्वर्ण मुकुट मिला। बिना कुछ सोचे ही राजा परीक्षित ने मुकुट पहन लिया। यह मुकुट जरासंघ का था। पाण्डवों ने जब जरासंघ का वध किया था तब वे इसे ले आए थे। यह धन अनीति का था, छीना-छपटी का था। अनीति का धन उसके कमाने वाले को और वारिस को भी दु:ख देता है, इसलिए उस मुकुट को पेटी में बंद करके रखा गया था। आज परीक्षित ने देखा तो पहन लिया।
अधार्मिक व्यक्ति का वह मुकुट अधर्म से ही लाया गया था। इसलिए उसके द्वारा कलयुग ने परीक्षित की बुद्धि में प्रवेश कर लिया। जिस कलयुग को राजा परीक्षित अपने देश में भी नहीं रहने देना चाहते थे उस कलयुग को राजा के मुकुट में ही स्थान मिल गया।
(साभार-भास्कर)

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