शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

अन्याय के विरोध में

कुछ दिन पहले की बात है। मैंने अपने बच्चों की गवर्नेस जूलिया को अपने पढ़ने के कमरे में बुलाया और कहा-"बैठो जूलिया।" मैं तुम्हारी तनख्वाह का हिसाब करना चाहता हूँ। मेरे खयाल से तुम्हें पैसों की जरूरत होगी और जितना मैं तुम्हें अब तक जान सका हूँ, मुझे लगता है तुम अपने आप तो कभी पैसे माँगोगी नहीं। इसलिए मैं खुद तुम्हें पैसे देना चाह रहा हूँ। हाँ, तो बताओ तुम्हारी तनख्वाह कितनी तय हुई थी? तीस रुबल महीना तय हुई थी ना?

"जी नहीं, चालीस रुबल महीना।" जूलिया ने दबे स्वर में कहा।
"नहीं भाई तीस। मैंने डायरी में नोट कर रखा है। मैं बच्चों की गवर्नेस को हमेशा तीस रुबल महीना ही देता आया हूँ। अच्छा... तो तुम्हें हमारे यहाँ काम करते हुए कितने दिन हुए हैं, दो महीने ही ना?
"जी नहीं, दो महीने पाँच दिन।"
"क्या कह रही हो! ठीक दो महीने हुए हैं। भाई, मैंने डायरी में सब नोट कर रखा है। तो दो महीने के बनते हैं- साठ रुबल। लेकिन साठ रुबल तभी बनेंगे, जब महीने में एक भी नागा न हुआ हो। तुमने इतवार को छुट्टी मनाई है। इतवार-इतवार तुमने काम नहीं किया।
कोल्या को सिर्फ घुमाने ले गई हो। इसके अलावा तुमने तीन छुट्टियाँ और ली हैं...।"
जूलिया का चेहरा पीला पड़ गया। वह बार-बार अपने ड्रेस की सिकुड़नें दूर करने लगी। बोली एक शब्द भी नहीं।
हाँ तो नौ इतवार और तीन छुट्टियाँ यानी बारह दिन काम नहीं हुआ। मतलब यह कि तुम्हारे बारह रुबल कट गए। उधर कोल्या चार दिन बीमार रहा और तुमने सिर्फ तान्या को ही पढ़ाया। पिछले सप्ताह शायद तीन दिन हमारे दाँतों में दर्द रहा था और मेरी बीबी ने तुम्हें दोपहर बाद छुट्टी दे दी थी। तो इस तरह तुम्हारे कितने नागे हो गए? बारह और सात उन्नीस। तुम्हारा हिसाब कितना बन रहा है? इकतालीस। इकतालीस रुबल। ठीक है न ?
जूलिया की आँखों में आँसू छलछला आए। वह धीरे से खाँसी। उसके बाद अपनी नाक पोंछी, लेकिन उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला।हाँ एक बात तो मैं भूल गया था' मैंने डायरी पर नजर डालते हुए कहा - 'पहली जनवरी को तुमने चाय की प्लेट और प्याली तोड़ डाली थी। प्याली का दाम तुम्हें पता भी है? मेरी किस्मत में तो हमेशा नुकसान उठाना ही लिखा है। चलो, मैं उसके दो रुबल ही काटूँगा। अब देखो, तुम्हें अपने काम पर ठीक से ध्यान देना चाहिए न? उस दिन तुमने ध्यान नहीं रखा और तुम्हारी नजर बचाकर कोल्या पेड़ पर चढ़ गया और वहाँ उलझकर उसकी जैकेट फट गई। उसकी भरपाई कौन करेगा? तो दस रुबल उसके कट गए। तुम्हारी इसी लापरवाही के कारण हमारी नौकरानी ने तान्या के नए जूते चुरा लिए। अब देखो भाई, तुम्हारा काम बच्चों की देखभाल करना है। इसी काम के तो तुम्हें पैसे मिलते हैं। तुम अपने काम में ढील दोगी तो पैसे तो काटना ही पड़ेंगे। मैं कोई गलत तो नहीं कर रहा हूँ न?
तो जूतों के पाँच रुबल और कट गए और हाँ, दस जनवरी को मैंने तुम्हें दस रुबल दिए थे...।'
'जी नहीं, आपने मुझे कुछ नहीं दिया...।'
जूलिया ने दबी जुबान से कहना चाहा।
'अरे तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? मैं डायरी में हर चीज नोट कर लेता हूँ। तुम्हें यकीन न हो तो दिखाऊँ डायरी?
'जी नहीं। आप कह रहे हैं, तो आपने दिए ही होंगे।'
'दिए ही होंगे नहीं, दिए हैं।'
मैं कठोर स्वर में बोला।
'तो ठीक है, घटाओ सत्ताइस इकतालीस में से... बचे चौदह.... क्यों हिसाब ठीक है न?
उसकी आँखें आँसुओं से भर उठीं। उसके शणीर पर पसीना छलछला आया। उसकी आवाज काँपने लगी। वह धीरे से बोली - 'मुझे अभी तक एक ही बार कुछ पैसे मिले थे और वे भी आपकी पत्नी ने दिए थे। सिर्फ तीन रुबल। ज्यादा नहीं।'
जूलिया ने यह सबकुछ सुना व फिर चुपचाप चली गई। मैंने उसे जाते हुए देखा और सोचा - 'इस दुनिया में कमजोर लोगों को डरा लेना कितना आसान है!' 'अच्छा' मैंने आश्चर्य के स्वर में पूछा और इतनी बड़ी बात तुमने मुझे बताई भी नहीं? और न ही तुम्हारी मा‍लकिन ने मुझे बताई। देखो, हो जाता न अनर्थ। खैर, मैं इसे भी डायरी में नोट कर लेता हूँ। हाँ तो चौदह में से तीन और घटा दो। इस तरह तुम्हारे बचते हैं ग्यारह रुबल। बोलो भाई, ये रही तुम्हारी तनख्‍वाह...? ये ग्यारह रुबल। देख लो, ठीक है न?
जूलिया ने काँपते हाथों से ग्यारह रुबल ले लिए और अपने जेब टटोलकर किसी तरह उन्हें उसमें ठूँस लिया और धीरे से विनीत स्वर में बोली - 'जी धन्यवाद।'
मैं गुस्से से आगबबूला होने लगा। कमरे में टहलते हुए मैंने क्रोधित स्वर में उससे कहा -
'धन्यवाद किस बात का?'
'आपने मुझे पैसे दिए - इसके लिए धन्यवाद।'
अब मुझसे नहीं रहा गया। मैंने ऊँचे स्वर में लगभग चिल्लाते हुए कहा, 'तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो, जबकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैंने तुम्हें ठग लिया है। तुम्हें धोखा दिया है। तुम्हारे पैसे हड़पकर तुम्हारे साथ अन्याय किया है। इसके बावजूद तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो।'
'जी हाँ, इससे पहले मैंने जहाँ-जहाँ काम किया, उन लोगों ने तो मुझे एक पैसा तक नहीं दिया। आप कम से कम कुछ तो दे रहे हैं।' उसने मेरे क्रोध पर ठंडे पानी का छींटा मारते हुए कहा।
'उन लोगों ने तुम्हें एक पैसा भी नहीं दिया। जूलिया! मुझे यह बात सुनकर तनिक भी अचरज नहीं हो रहा है। मैंने कहा। फिर स्वर धीमा करके मैं बोला - जूलिया, मुझे इस बात के लिए माफ कर देना कि मैंने तुम्हारे साथ एक छोटा-सा क्रूर मजाक किया। पर मैं तुम्हें सबक सिखाना चाहता था। देखो जूलिया, मैं तुम्हारा एक पैसा भी नहीं काटूँगा।
देखो, यह तुम्हारे अस्सी रुबल रखे हैं। मैं अभी तुम्हें देता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं तुमसे कुछ पूछना चाहूँगा।
जूलिया! क्या जरूरी है कि इंसान भला कहलाए जाने के लिए इतना दब्बू और बोदा बन जाए कि उसके साथ जो अन्याय हो रहा है, उसका विरोध तक न करे? बस चुपचाप सारी ज्यादतियाँ सहता जाए? नहीं जूलिया, यह अच्छी बात नहीं है। इस तरह खामोश रहने से काम नहीं चलेगा। अपने आप को बनाए रखने के लिए तुम्हें इस संसार से लड़ना होगा। मत भूलो कि इस संसार में बिना अपनी बात कहे कुछ नहीं मिलता...।
जूलिया ने यह सबकुछ सुना व फिर चुपचाप चली गई। मैंने उसे जाते हुए देखा और सोचा - 'इस दुनिया में कमजोर लोगों को डरा लेना कितना आसान है!'
(साभार-वेबदुनिया.कॉम)

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