शनिवार, 11 सितंबर 2010

एक कवि सम्मेलन

- पंकज शर्मा

एक कवि सम्मेलन में ऐन मौके पर कवि कम पड़ जाने की पोजीशन में हमारी पोजीशन को थोड़ा उठाया गया यानी कि हमें आदर से नहीं, बल्कि मजबूरी में एक कवि सम्मेलन में बुलवाया गया। हमने अपनी धर्मपत्नी को यह बताया और जाने के लिए जैसे ही अपना थैला उठाया कि हमारी धर्मपत्नी ने भी अपने पत्नी धर्म का निर्वाह कर दिया और जाते-जाते हमें अपने सुरीले सुरों से आगाह कर दिया, 'आलू, प्याज, टमाटर सब हो गए हैं खत्म, आओगे तो आते-आते ले आना प्रियतम।' हमको उनको यह इशारे खूब समझ में आते थे, जब भी कहीं जाते थे हम यही कुछ तो लाते थे। किसी भी कवि सम्मेलन में जब भी हम अपनी कविता सुनाते थे, श्रोताओं द्वारा दिल खोल कर हम पर यही तो फेंके जाते थे। अच्छे-अच्छे छाँट-छाँटकर उनमें से घर ले आते थे। घोर महँगाई के इस दौर में ऐसे ही काम चलाते थे।

नियत समय से पहले ही हम जा पहुँचे सम्मेलन में, जैसे कोई गाँव की गौरी जा पहुँची हो मेलन में। पर जो देखा हाल वहाँ का दिल को पहुँची ठेस थी, जरा, जो थे श्रोता कभी उन्होंने आज कवि का, भेस था धरा। लगता था सबने एक दूजे से बदला लेने की ठानी थी, श्रोताओं से कवि बनने की लगती यही कहानी थी। आज कहाँ कोई किसी की बात जरा भी सुनता है जिसको देखो अपनी धुन में अपनी ही धुन धुनता है। हम भी सिर को धुनते-धुनते अपनी धुन में बैठ गए, देखें क्या होता है आगे अब बैठ गए तो बैठ गए। श्रोता कम और कवि थे ज्यादा गजब नजारा आज हुआ, मंच भरा और कुर्सियाँ खाली अजब सम्मेलन आज हुआ।

कवियों की भी लिस्ट में अपना नाम आखिरी लिखा हुआ था, कोई नहीं जब सुनने वाला तो ये भी चलो अच्छा हुआ था। एक-एक करके सभी कवि अपनी कविता पढ़ते जाते थे और एक-एक करके श्रोता अपनी कुर्सी से उठते जाते थे। उनको उठते देख हमारा दिल ही बैठा जा रहा था, कैसे ले जाएँगे कुछ रह रहकर यही ख्‍याल आ रहा था। न रहेगा बाँस तो कोई बाँसुरी क्या बजाएगा भला और श्रोता नहीं हुए तो कोई सब्जी क्या बरसाएगा भला।

मुख्‍य अतिथि बैठे-बैठे फोन पर बातें कर रहे थे और उनके चमके उनको घेरे घोर खुशामद कर रहे थे। देख के उनको अपना कलेजा यूँ मुँह को आता था, मैयत पर आने की जैसे कोई रस्म निभाता था। न कवियों से लेना-देना था उनको और न उनकी कविताओं से, उनको तो मतलब था बस अपने ही चहेताओं से। कैसी भी कोई मंच पर आकर अपनी कविता सुनाता था, उनके मुँह से तो बस हर दम वाह वाह निकल जाता था। किसने किसी की रचना पढ़ दी, किसने फिर दोहरा दी, सुनने किसने थी बस मौका मिलते ही ताली बजा दी। हम तक तो कविता कहने का मौका ही न आया था कि उससे पहले ही मुख्‍य अतिथि जी का कोई ऐसा अर्जेंट फोन आया था।

जाना था जरूरी या कि हमसे पीछा छुड़वाया था, मंच संचालक को कह मुख्‍य अतिथि जी ने खुद को बुलवाया था। मंच पर आकर के उन्होंने पहले तो कवियों के गुणगान किए और कविताओं से कितना लगाव है उनका, कह अपने सारे गुण बखान किए। जाते-जाते सभी जनों को उन्होंने प्रणाम किया था और दो-दो सौ रुपए प्रत्येक कवि को इनाम का ऐलान किया था। सुन कर के इनाम का हमारा किलो खून बढ़ा था, सब्जी भाजी ले जाने का सारा फिक्र हटा था। कुर्सियाँ खाली पड़ी हुई थीं और खाली हम रह गए थे।

मुख्‍य अतिथि, चमचे, श्रोता और कवि सब चले गए थे। फिर भी हमने कविता कहकर अपना ईमान दिखाया, उधर टैंट वालों ने भी जल्दी से अपना सामान उठाया। रुपए लेकर हाथ में संचालक महोदय दरवाजे पर खड़े हुए थे। हम भी झटपट कविता कह कर उनके समक्ष खड़े हुए थे। रुपए लेकर जेब में डाले, कंधे पे फिर टाँग लिया थैला और सब्जी मंडी से शॉपिंग कर पत्नी से मिलने चल दिया छैला।
सौजन्य से - शुभ तारिका