रविवार, 19 सितंबर 2010

भागवत: ७०-७२: ऐसे करें भगवान के दर्शन


अभी मनु और शतरूपा की संतानों की कथा चल रही है। जब मनु और शतरूपा ने भगवान के पहली बार दर्शन किए तो भगवान के दर्शन को लेकर मनु और शतरूपा ने जो भाव प्रकट किया वो हमारे भीतर हमें रखना चाहिए। जैसे ही भगवान प्रकट हुए, मनु-शतरूपा ने देखा तो ऐसा लिखा है-
छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी, एकटक रहे नयन पट रोकी। चितवहीं सादर रूप अनूपा, तृप्ति न मानही मनु-शतरूपा।छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी

अर्थात भगवान के रूप को देखकर ऐसा लगे कि ये छवि का समुद्र है, सौंदर्य का सागर है । पहला भाव ये होना चाहिए। एकटक रहे नयन पट रोकी अर्थात एकटक हो जाइए, अचंभित हो जाइए जैसे बहुत समय बाद हमारा परिचित मिले हम उसको देखकर चौंक जाते हैं, ऐसे ही भगवान को देखकर एकदम अचंभित होने का भाव लाइए। नयनपट रोकी, पलकों को झुकाना बंद कर दीजिए। पलक तो दुनिया के सामने झुकाई जाती है भगवान को देखें तो एकटक देखते रहें। तीसरा काम नैनो को रोक दीजिए आंख खुली रखकर देखते जाइए-देखते जाइए।
चितवहीं सादर रूप अनूपा, चौथी बात प्रतिमा को देखें तो सादर, आदर का भाव रखें। मूर्ति के प्रति सम्मान का भाव रखें, गरिमा से खड़े रहें। चितवहीं सादर रूप अनूपा, एक शब्द आया अनूपा, भगवान के रूप को देखें तो प्रतिपल अनूप लगना चाहिए, नया-नया लगना चाहिए। छठी सबसे महत्वपूर्ण बात तृप्ति न मानहीं मनु-शतरूपा। दर्शन करने के बाद मनु-शतरूपा को तृप्ति नहीं हुई। अतृप्त भाव बना रहे। भगवान के दर्शन करने के बाद तृप्ति का भाव न बना रहे। इन छह तरीकों से भगवान के दर्शन किए जाते हैं।

दिव्य है शंकर-पार्वती का दाम्पत्य

मनु-शतरूपा ने अपनी पुत्री प्रसूति दक्षराज को सौंपी और प्रसूति तथा दक्ष की सौलह कन्याएं हुईं उसमें सौलहवीं सबसे छोटी कन्या थीं सती। सतीजी का विवाह किया गया शंकरजी से। अब आप सती और शंकर का दाम्पत्य देखिए। सती के साथ शंकरजी का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। ग्रंथकार अब हमको आगे ले जा रहे हैं। दक्ष की कथा बताई।
सबसे पहले जब दक्ष को सम्मान मिला तो दक्ष को आया अहंकार। एक बार साधु-संतों का कार्यक्रम था, अनुष्ठान था उसमें सब देवता साधु-महात्मा बैठे हुए और उसमें दक्ष सबसे बाद में आए। उन्होंने इधर-उधर देखा कि मैं आया तो सब खड़े हो गए पर शंकर भगवान खड़े नहीं हुए, ध्यान लगाए बैठे थे। बस यहीं से श्वसुर और दामाद में बैर-भाव आरंभ हो गया। दोनों में मतभेद हो गए। उस सभा में बात ऐसी हुई कि दक्ष के जो सचिव थे उन्होंने शंकरजी को कुछ कह दिया। तो शंकरजी के जो गण थे उन्होंने उनको भी अपशब्द कह दिए। सती को भी ये मालूम हो गया कि मेरे पिता से मेरे पति का मतभेद हो गया है।
एक बार शंकरजी की रामकथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुंचे। उन्होंने कहा मैं आपसे रामकथा सुनना चाहता हूं। शंकरजी आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने शंकरजी को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूं। सतीदेवी ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है ये तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या रामकथा सुनाएगा। सती ने सोचा शंकरजी तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहां से सती के दिमाग में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुंदर रामकथा सुनाई कि शंकरजी को आनंद हो गया। हम संक्षेप में चर्चा करते चल रहे हैं। शंकरजी ने कथा सुनी, अपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं।

जब माता सती ने ली श्रीराम की परीक्षा

सतीजी कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं। शंकरजी ने बोला आपकी इच्छा आप सुनो या न सुनो। जब दोनों पति-पत्नी लौट रहे थे तब भगवान श्रीरामचंद्र की विरह लीला चल रही थी। सीताजी का अपहरण हो चुका था। भगवान सीताजी को ढूंढ रहे थे। सामान्य राजकुमार से रो रहे थे। यह देखकर शंकरजी ने कहा जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं उनकी लीला चल रही है। शंकरजी ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया, जय सच्चिदानंद।
और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो सतीजी का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पतिदेव इनको प्रणाम कर रहे हैं रोते हुए राजकुमार को। शंकरजी ने बोला ''सतीदेवी आप समझ नहीं रही हैं ये श्रीराम हैं जिनकी कथा हम सुनकर आए उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है मैं प्रणाम कर रहा हूं आप भी करिए''। सतीजी ने बोला मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। सतीजी ने कहा ये ब्रह्म हैं मैं कैसे मान लूं मैं तो परीक्षा लूंगी। शंकरजी ने कहा ले लीजिए लेकिन मर्यादा का ध्यान रखना देवी तथा एक पत्थर पर बैठ गए।
सतीजी गईं हठ करके परीक्षा लेने। लिखा है ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा। अस कहि लगे जपन हरिनामा, गईं सती जहां प्रभु सुखधामा।'' शंकरजी कह रहे हैं अब जो होगा भगवान की इच्छा। कई लोग इन पंक्तियों का अर्थ आलस्य से करते हैं। ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।'' तर्क की शाखा बढ़ाने से क्या फायदा, होगा वही जो भगवान चाहेंगे। इसलिए कुछ मत करो ऐसा समझना बिल्कुल गलत बात है। शंकरजी ने पूरा पुरूषार्थ किया, कथा सुनाने ले गए , कथा सुनाते समय समझाया, वापस समझाया अपना पूरा पुरूषार्थ करने के बाद परिणाम के लिए भगवान पर छोड़ दिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें