शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

मौत के बाद होता है ऐसा जीवन


सनानत धर्म में आश्विन माह के पहले 15 या 16 दिनों में श्राद्ध पक्ष आने पर पूर्वजों को याद कर उनके सुख और शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर उनसे स्वयं के जीवन के कष्टों को दूर करने की भी कामना की जाती है। किंतु धर्म की समझ से दूर अनेक लोगों के मन में यह प्रश्र होता है कि आखिर श्राद्ध कर्म करने से पितरों को कैसे संतुष्टि मिलती है। यहां करते हैं इसी जिज्ञासा को शांत -

सनातन धर्म की मान्यता है कि मानव शरीर पंच तत्वों - आग, पानी, पृथ्वी, वायु, आकाश, पांच कर्म इन्द्रियों हाथ-पैर आदि सहित २७ तत्वों से बना है। किंतु जब मृत्यु होती है तो शरीर पंचतत्व और कर्मेंन्द्रियों को छोड़ देता है। किंतु शेष १७ तत्वों से बना अदृश्य और सूक्ष्म शरीर इसी संसार में बना रहता है।

हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि सांसारिक मोह और लालसाओं के कारण यह सूक्ष्म शरीर १ साल तक मूल स्थान, घर और परिवार के आस-पास ही रहता है। किंतु शरीर न होने से उसे किसी भी सुख का आनंद नहीं मिलता और इच्छा पूर्ति न होने के कारण वह अतृप्त रहता है।

इसके बाद वह अपने कर्म के अनुसार अलग-अलग योनि को प्राप्त करता है। हर योनि में किए गए कर्म के अनुसार जनम-मरण का चक्र चलता रहता है।

यही कारण है कि मृत्यु के बाद वर्ष भर और उसके बाद भी मृत परिजन को तृप्त करने और जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध के द्वारा भोजन के साथ अन्य सुख, रस सूक्ष्म रुप में मृत जीव आत्मा या अलग-अलग योनि में घूम रहे पूर्वजों को मिलते हैं और वह तृप्त हो जाते हैं। खासतौर पर पितृपक्ष काल में। जबकि यह माना जाता है कि पूर्वज इस विशेष काल में अपने परिजनों से मिलने जरुर आते हैं।

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