पुरातन काल से लेकर आधुनिक समय तक आए सामाजिक बदलावों के साथ धर्म और उससे जुड़े कर्मकाण्ड के भ्रामक प्रचार और व्याख्या के कारण यह लोक मान्यता बन गई कि श्राद्धपक्ष के 15 या 16 दिन के समय में किया जाने वाला हर शुभ कार्य अशुभ होता है। इसके साथ ही यह भी माना जाता है कि इस काल में जिन कार्यों में आनंद और सुख मिले वह निषेध है। किंतु ऐसी मान्यताएं व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से विचार करें तो गलत साबित होती हैं।
जानते है इसके कारण -
दरसअल पुरातन काल से ही पितृपक्ष में श्राद्ध से जुड़ी धार्मिक परंपराओं का पालन करते समय आचरण और चरित्र की शुद्धि के लिए नियम और विधि नियत है। जो हर उत्सव, व्रत, त्यौहारों के लिए भी होते हैं। जिनका संबंध खान-पान, पहनावे से होता है। संभवत: इसे ही हमारी मूल जरुरतों रोटी, कपड़ा और मकान सुख के बंधन से जोड़ लिया गया। जबकि दूसरी ओर आज हम श्राद्ध के लिए बनाए गए भोजन में पितरों को पसंद चावल और दूध से बनी खीर के अलावा अन्य कई मीठे पकवान बनाते हैं। उस दिन स्वयं और अतिथि आधुनिक और अच्छे वस्त्र पहनते हैं। इस तरह जहां मीठे पकवान स्वाद में तो वस्त्र एहसास में आनंदित ही तो करते हैं।
दूसरा इस काल विशेष में देवता के समान पितरों की पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है। ठीक वैसे ही जैसे सावन में शिव, भादौ में श्री गणेश या आश्विन माह में शक्ति की उपासना कर उनकी कृपा से जीवन में सुखों की कामना की जाती है।
तीसरा श्राद्ध कर्म न केवल मृत परिजनों से भावनाओं को जोड़कर मनोबल और विश्वास बढ़ाता है बल्कि उनकी याद में शामिल होने वाले सभी जीवित परिजनों के बीच भावना, संवेदना, प्यार, स्नेह, भरोसे और रिश्तों के बंधन को मजबूत बनाए रखता है और पूर्वजों की परिवार और परंपराओं को आगे बढ़ाने, अपने वंशजों के सुख और समृद्धि से जीवन जीने इच्छाओं को पूरा करता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि श्राद्ध पक्ष व्यावहारिक जीवन के लिए कोई बंधन का काल नहीं बल्कि उस मानसिक और वैचारिक आजादी का है। जिसमें हम अपने पूर्वजो और पितरों के सुख और संतुष्टि के लिए हर जतन करते हैं और बदले में पितर हमें वैसा ही आनंद और सुख का आशीर्वाद देकर हमारे जीवन से कलह और दु:ख को मिटा देते हैं।
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