शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

भागवत: ८१: पृथु ने दिया पृथ्वी को रक्षा का वचन



पृथ्वी की बात सुनकर पृथु ने प्रसन्न होकर पृथ्वी को पुत्री बना लिया। पृथ्वी पूछ रही है- आपने जानने की कोशिश नहीं की मैंने ये सब क्यों किया? मेरे ऊपर अत्याचार बढ़ गए, दुराचार बढ़ गए, मेरा दुरुपयोग किया जा रहा है। लोग मेरे प्राण काट रहे हैं, वृक्ष को छिन्न-भिन्न कर दिया। नदियां सुखा दी गईं। और मुझसे कह रहे हैं तुमने सभी संपदा छुपा ली। आप राजा है पृथ्वी सुरक्षित रहेगी तो पृथ्वी देती रहेगी।
पृथु को ये बात ठीक लगी। पृथु ने कहा पृथ्वीदेवी मैं सचमुच इस कृत्य के लिए क्षमा मांगता हूं, इसलिए आज से आप मुझसे रक्षित हैं। पृथ्वी को रक्षा का आश्वासन दिया गया । शुकदेवजी कह रहे हैं परीक्षित से। राजा पृथु ने पृथ्वी को मथा। राजा पृथु के पहाड़ समतल किए, जमीन बनाई, जल के स्थान पर जल लाया , नदी के स्थान पर नदी प्रवाहित की और पृथु राजा ने पृथ्वी को व्यवस्थित करके भवन बनाने की परंपरा आरंभ की। पृथु ने पृथ्वी से कहा कि आज से तू सुरक्षित है। ये पृथु और पृथ्वी की कथा है। इसी के बाद इसी वंश में प्रचेता आए, पुरंजन आए।
अब चौथा भाग मोक्ष आरंभ हो रहा है। हमने राजा पृथु का पुरुषार्थ देखा और अब मोक्ष की ओर बढ़ रहे हैं। ये हमारा चौथा पुरुषार्थ है ये प्रकृति हमें मोक्ष का प्रतीक बताएगी। इस प्रकृति को देखकर आप समझ लीजिए ये भगवान की है ये भगवान में ही लीन होना है। कोई इससे बाहर नहीं है तो मोक्ष की कामना का अर्थ मरना परम आनंद है। मोक्ष का अर्थ है बस उससे मिल जाना, उससे जुड़ाव हो जाना हमारा। बस यहीं परम आनंद घट जाएगा।

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