गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

भागवत: ८७: भागवत बताती है माया का रहस्य


हमने अभी तक पढ़ा ऋषभदेव अपने पुत्र भरत को राज-पाट सौंपकर वन को चले गए। भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा। भरत ने इसको इतना व्यवस्थित किया और सोने की चिडिय़ा बनाया। किसी राष्ट्र के विकास के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था वो भरत ने किया। वे हमें ये सीखा गए कि देश को कैसे योग्य बनाएं।

भरत ने एक बड़ा संदेश यह दिया कि मैं सुपात्र था तो मैंने अजनाभ वर्ष(भारत वर्ष का पूर्व नाम) ऐसा बना दिया कि ये आगे तक भारतवर्ष जाना जाएगा। इसीलिए हम उस भरत राजा को प्रणाम करते हैं जिन्होंने भारतवर्ष हमको सौंपा। हमारी तैयारी भी ऐसी ही हो कि आज से 50-100 साल बाद कोई दिव्य भारतवर्ष आने वाली पीढ़ी को सौंपकर जाएं। नहीं तो यह पीढ़ी कभी हमें क्षमा नहीं करेगी, लोग कहेंगे ऐसा देश छोड़ा? एक बार और हम सबको स्वर्णिम भारत बनना है। ये भागवत की मांग है।इसलिए भागवत में शुकदेवजी परीक्षित से कह रहे हैं भरत से सीखो। कैसे अपने देश को, अपने राष्ट्र को योग्य बनाया कि आज वो भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है।
इसलिए मौलिकता व्यक्तित्व की बनाए रखिएगा।आइए हम भागवत कथा के विधान में दूसरे दिन के समापन की ओर प्रवेश करें। भरतजी के जीवन में जो गड़बड़ अब होने वाली है बस उसको पढ़कर दूसरे दिन की कथा का समापन होता है। भरतजी राजपाठ सब छोड़कर वन में जाकर अपना भजन-पूजन करने लग गए लेकिन भरतजी की माया छुटी नहीं। उनकी माया का मोह छुटा नहीं और राज छोड़कर आ गए वन में।देखिए एक बात का ध्यान रखिए छह जगह से माया का प्रवेश होता है। माया भोजन से, द्रव्य से मतलब दौलत से, वस्त्र से, स्त्री से, घर से और पुस्तक से आती है।
पुस्तक से भी माया का जन्म होता है। माया इतनी जगह से आएगी तो लोग पूछते हैं ये माया क्या है? भगवान जब सृष्टि का निर्माण करते हैं तो जिस शक्ति का उपयोग करते हैं उसका नाम है माया। वो माया से इसको रचते हैं। माया को साधारण भाषा में कहते हैं जादू। सबसे बड़ा जादूगर वो दुनिया का परमात्मा है। वो माया हमारे साथ करता है।

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