सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

रावण की दौड़


दशानन रावण ने इस बार कुछ अलग करने का निश्चय किया, अपने दहन का एक ही तरीका अपनाते वह ऊब चुका था। उसने तय किया कि इस बार रावण-दहन के दिन पहले वह पूरे शहर का भ्रमण करेगा और जिस बच्चे का बनाया हुआ रावण का पुतला उसे पसंद आएगा, उसी पुतले की काया में प्रवेश कर वह अपना दहन संपन्न करा लेगा।

शहर की प्रसिद्ध इमारत की छत पर वह उतरा। सामने की होटल से उसने एक ग्लास चाय सुड़की और निकल पड़ा अपने निरीक्षण अभियान पर, स्वांग बनाया एक घुमक्कड़ का। सबसे पहले वह पहुँचा तिलक नगर जहाँ ग्यारह फुट लंबे रावण का निर्माण किया गया था। उसके निर्माता किशोरवय शिशिर से उसने पूछा - 'तुम्हारा रावण तो बड़ा अच्छा दिखाई पड़ रहा है।'
शिशिर ने उत्साहपूर्वक बताया - 'सबको अच्छा‍ दिखेगा ही क्योंकि इसे मैंने दिल से बनाया है।'

क्या विशेषता है भाई इसकी?' रावण ने प्रश्न किया। शिशिर बोला - मैंने इस बार इसके बाहरी स्वरूप पर बहुत ध्यान दिया है ताकि पहला प्रभाव अच्छा पड़े। आप देख रहे हैं न इसका स्वास्थ्य? कितना गोलमटोल बनाया है।

मालूम है इसमें छ: महीने के अखबार की रद्‍दी और अपने कई पुराने कपड़ों को ठूँस-ठूँस कर भरा है। इसे बनाने में तुम्हारा कितना पैसा लगा होगा? रावण ने जानना चाहा। रद्‍दी, पुराने कपड़ों की कीमत जोड़ ली जाए तो लगभग पाँच सौ रुपए। शिशिर ने अनुमान लगाया।

पहले पुतले के आकर्षण से अभिभूत रावण दूसरी कॉलोनी विजय नगर पहुँचा। वहाँ के पुतले को देखकर वह हक्का-बक्का रह गया। तेरह फुट का रावण ऐसा सजीव लग रहा था जैसे अभी बोल पड़ेगा। उसके निर्माता मुनीश से मुलाकात हुई तो उसने बताया -

'मेरी कई दिनों की मेहनत का परिणाम है यह जीवंत पुतला।' रावण ने प्रशंसा की - 'हाँ भाई सचमुच खूबसूरत है यह, क्या-क्या किया इसमें?' मुनीश आँखें मटकाते बोला - 'आप यह पूछिए क्या नहीं किया इसमें। इस बार मैंने आतिशबाजी पर ज्यादा ध्यान दिया है, प्रत्येक अंग में ठूँस-ठूँस कर सुतली बम, अनार और फुलझड़ियाँ भरी हैं ताकि बहुत देर तक यह जलता रहे।'

'कितना व्यय हुआ इसे बनाने में?' रावण ने अंतिम प्रश्न किया। मुनीश ने बताया - 'हिसाब तो नहीं किया मगर सात-आठ सौ से कम नहीं होगा।'

रावण शहर के तीसरे मोहल्ले परदेशीपुरा पहुँचा तो वहाँ भी पंद्रह फुट का भव्य पुतला सिर उठाए खड़ा था। उसकी निर्मात्री फागुनी से रावण ने पूछा - तुम्हारा रावण तो बहुत बढ़िया बना है, कैसे बनाया तुमने इसे?'

फागुनी ने बताया - 'मैंने अपने भाई के साथ मिलकर, इसके दस सिरों को बनाने में खूब परिश्रम किया है। आप देख रहे हैं न प्रत्येक सिर को मैंने नाम दिया हुआ है - आतंकवादी, भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोर, मिलावटी, दहेज-लोभी, मुनाफाखोर, कालाबाजारी, संप्रदायवादी, महँगाई, बेईमानी।'

वाह, कितना धन खर्च हुआ इसे बनाने में? रावण ने पूछा। क्या करेंगे जानकर? चलिए बताती हूँ, हमारी मेहनत छोड़ दी जाए तो लगभग हजार रुपए का खर्चा बैठा है। फाल्गुनी ने बताया।

फाल्गुनी के रावण से प्रभावित होता हुआ रावण शहर की चौथी कॉलोनी चंदन नगर पहुँचा। वहाँ सत्रह फुट का रावण तलवार हाथ में लहराते हुए आसमान से बातें कर रहा था। रावण ने तारीफ की - 'तुम्हारा रावण अद्‍भुत है, कैसे बनाया इसे?' उसके निर्माता दिव्यांश ने बताया - 'मैंने इस पर सात दिन खूब पसीना बहाया है। रावण अंकल बुरे थे, बुरा काम किया इसका मतलब यह थोड़े कि वह बदसूरत रहे होंगे। इसलिए मैंने उनका चेहरा सुंदर बनाया है।'

सचमुच किसी फिल्मी नायक सा लगता है, कितना पैसा लगा दिया इसे बनाने में? रावण ने जानना चाहा।

पैसा तो अंकल बहुत लगा फिर भी जोड़ें तो यही कोई हजार-बारह सौ तो खर्चा बैठा ही होगा। दिव्यांश ने बताया।

शहर के पाँचवें इलाके जेल रोड पहुँचा तो वहाँ इक्कीस फुट के रावण के पुतले को देखकर वह चकित रह गया। उसके निर्माता पारस से पूछा - 'भाई कुछ बताओ इसके बारे में।'

इसका प्रमुख आकर्षण इसकी बड़ी रौबीली मूँछ और हाथ में तलवार के बजाय मशीनगन है।
वाकई तुम्हारा रावण सबसे अनोखा है, कितने में पड़ा यह? रावण ने पूछा।
पंद्रह सौ में। पारस ने बताया।

रावण के आश्चर्य में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी। छोटे-छोटे बच्चे जब हजारों में खर्च कर रहे हैं तो बड़े पुतलों में तो ढेर सारा धन लग जाता होगा।

रावण ने पूछ लिया - इतने सारे रुपयों में बनाया गया रावण का पुतला जलाने में कष्ट नहीं होता तुम्हें?'

क्यों नहीं होता, होता है मेरी साल भर की बचत निकल जाती है इसमें। पारस ने बताया। तो मत जलाया करो।
एक बात बताओ, एक बुरे आदमी को तुम इतना अच्‍छा और महँगा क्यों बनाते हो... इससे अच्‍छा तो मुझे जला लो मैं असली रावण हूँ।' अनायास रावण के मुँह से निकल गया। पारस का मुँह खुला रह गया। क्या.. आप सचमुच के रावण हैं।

हाँ लेकिन मुझे अभी शहर के और बहुत सारे रावण के पुतले देखना हैं, उनको देखने के बाद तय करूँगा कि कहाँ पर जलूँ? रावण बोला।
लेकिन अब जब आपको मैंने पहचान लिया है तो आप बचकर कैसे जा सकते हैं?
कहते हुए पारस उसे पकड़ने दौड़ा। आगे-आगे रावण और पीछे-पीछे पारस... लगता था दोनों की दौड़ हो रही हो।
सौजन्य से - देवपुत्र

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