बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

भागवत: १०४: जब देवताओं ने विश्वरूप को बनाया गुरु



पिछले अंकों में हमने पढ़ा इंद्र द्वारा अपमान करने पर बृहस्पतिजी अपने स्थान से विलुप्त हो गए। तब सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने उन्हें एक उपाय बताया कि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाकर उसको गुरु बनाने का निवेदन किया जाए। देवतागण विश्वरूप के पास गए। विश्वरूप ने कहा कि वह तो उनसे आयु में बहुत छोटा है देवताओं का गुरु किस प्रकार बन सकता है। तब इंद्र ने समझाया बड़प्पन केवल आयु से नहीं होता आप देवज्ञ हैं अत: पुरोहित बनकर हमारा मार्गदर्शन कीजिए।
जब विश्वरूप ने देवताओं का पुरोहित बनना स्वीकार किया तो उसने अपनी वैष्णवी विद्या के बल पर असुरों से नारायण कवच आदि छीनकर इंद्र को प्रदान कर दिया। इंद्र ने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली। यहां एक कथा और आती है। ये जो विश्वरूप है इसके तीन मुख थे एक मुख से वह सोमपान करता था, दूसरे से सुरापान व तीसरे से भोजन करता था। देवता उसके पिता के पक्ष के थे और दैत्य माता के पक्ष के थे। इसीलिए देवता विश्वरूप में विश्वास थोड़ा कम करते थे। सतर्क रहते थे।यहां एक बात और विचारणीय है वह यह कि जीवन में गुरु का बड़ा महत्व है। देवताओं के जीवन से गुरु लुप्त हो गए तो देवताओं की पराजय हो गई। जिसके जीवन में गुरु आ जाए वो सौभाग्यशाली है।
जब भी अवसर आए गुरु बना लीजिएगा ये अवसर जीवन में दोबारा नहीं आते। आपके जीवन में कब, कौन आएगा आपको मालूम नहीं पड़ेगा। अचानक आएंगे गुरु, आएंगे जरूर। गुरु आपको तीन बात देते हैं मंत्र देंगे, माला देंगे और मन देंगे। गुरु का मंत्र जिस क्षण आपके जीवन में उतरता है, जिस क्षण आप दीक्षित होते हैं। जिस क्षण आप पर शक्तिपात किया जाता है गुरु द्वारा। आप उस क्षण दिव्य हो जाते हैं। कई लोग ऐसे हैं कि जीवन में एक बार दीक्षा के समय गुरु से मिले और जीवनभर नहीं मिले क्योंकि उसके बाद आपकी पूंजी गुरु नहीं है वो तो गुरु मंत्र ही पूंजी है। जो उस मंत्र पर टिक गया वो गुरु होने का आनंद उठा लेगा।

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