मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

भागवत: ८४ -८५: भगवान को पाना है तो दुर्गुण छोडऩा होंगे


अब हम पांचवें स्कंध में प्रवेश करने जा रहे हैं। शुकदेवजी कह रहे हैं परीक्षित ध्यान से सुनिएगा। जो-जो प्रश्न आप करते जा रहे हैं मैं आपको उत्तर देता जा रहा हूं। पांचवां स्कंध स्थितिलीला का स्कंध हैं। इसमें भूगोल का विस्तार से वर्णन किया है। शुकदेवजी ने राजा को बार-बार परिचित कराया है कि परीक्षित प्रकृति का सम्मान करो। ज्ञान और भक्ति जीवन में आ जाए तो जीवन में स्थायी कैसे रहेगी, पंचम स्कंध के माध्यम से भागवत बताने जा रही है कि ये स्थायी कैसे रहेगी ।

भगवान को पाना पड़ता है। भगवान को रोकना पड़ता है, भगवान को बुलाना पड़ता है। ऐसे आसान काम नहीं होगा। इसे स्थायी बनाना है तो कीमत चुकाना पड़ेगी। परमात्मा आपसे कुछ और नहीं बस आपके दुर्गुण मांग रहे हैं, इतना बढिय़ा सौदा। एक तराजू में अपने दुर्गुण रख लीजिए और भगवान को तौलकर ले जाइए घर पर। ये सिर्फ भगवान करते हैं दुनिया में और कोई नहीं कर सकता। भगवान मांग कर रहे हैं मैं आने को तैयार हूं और देखिए एक बात याद रखिए जिस-जिस के जीवन में भगवान आए। उसको ऊंची कीमत चुकानी पड़ी।
भगवान जिसकी संतान बनें वो दशरथ और वो यशोदा-नंद भगवान को अपने पास में नहीं रख पाए। तो आइए भगवान को बुलाते हैं अपने जीवन में। हम प्रवेश कर रहे हैं मनु और शतरूपा के छोटे पुत्र प्रियव्रत के जीवन में। परीक्षितजी ने शुकदेवजी से एक प्रश्न पूछा कि ये प्रियव्रत नाम का राजा जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं सुना है ये अपनी गृहस्थी में बहुत सुखी रहता था। आदमी गृहस्थी में भक्त भी रहे, राजकाज भी चलाए इतना व्यस्त राजा और फिर भी गृहस्थी चलाता था तो मेरा आपसे प्रश्न है प्रियव्रत इतना प्रिय कैसे हो गया?
काम को ईश्वर की भक्ति मानकर करें

मनु महाराज का छोटा पुत्र प्रियव्रत वो राजा था जिसने सूर्य के साथ अपने रथ पर बैठकर सात परिक्रमाएं की थीं। शुकदेवजी परीक्षित से बोले प्रियवत अपने नाम के अनुसार था तथा सदैव आनंद से रहता था। एक कथा के अनुसार एक मंदिर का निर्माण हो रहा था। निमार्ण में तीन मजदूर बाहर काम कर रहे थे। एक व्यक्ति आया और उसने जो महात्मा मंदिर का निर्माण करा रहे थे उनसे पूछा ''महात्माजी एक बात बताओ ये अध्यात्म क्या होता है और ये हमारे जीवन में क्या प्रभाव डालता है।
महात्माजी बोले पहले तू ये तीन मजदूर बाहर बैठे हैं इनसे पूछकर आ कि तुम क्या कर रहे हो? बस तेरी बात का उत्तर मिल जाएगा। वह आदमी गया और उसने पहले मजदूर से पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था कि भैया तुम क्या कर रहे हो तो उसने गुस्से में बोला दिखता नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं। दूसरे से पूछा, उसने कहा भैया नौकरी कर रहा हूं । पापी पेट के लिए, बच्चों को पालने के लिए काम करना ही पड़ता है। तीसरे से जाकर पूछा तो उसने बड़ा सुंदर उत्तर दिया ''पूजा कर रहा हूं, आनंद मना रहा हूं। ये पत्थर मंदिर में लगेंगे यह जानकर मुझे बड़ी मस्ती आ रही है।
तीनों का उत्तर लेकर वो उस महात्मा के पास गया। महात्मा ने कहा जीवन का यही फर्क है। तुम अपनी गृहस्थी, अपना कामकाज उस पहले मजदूर की तरह बना सकते हो, चिढ़चिढ़ करके, गुस्से में आकर या तुम उस आदमी की तरह कर सकते हो जो मजबूर होकर पापी पेट के लिए या तुम उस व्यक्ति की तरह कर सकते हो जो मजा ले रहा है, आनंद लेकर पत्थर तोड़ रहा है। बस जीवन के पत्थर को ऐसे ही तराशिए। मजा आएगा। शुकदेवजी समझाते हैं प्रियव्रत की सारी जीवनशैली ऐसी थी, इसलिए प्रियव्रत आनंद में रहा।

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