मंगलवार, 9 नवंबर 2010

भागवत: 111- 113 : जय-विजय का उद्धार किया भगवान विष्णु ने



पिछले अंक के अनुसार भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकषिपु का वध कर दिया। उसके बाद प्रह्लाद ने भगवान से कहा- प्रभु मैं आपके मांगलिक सद्गुणों का वर्णन कैसे करूं? आपकी लीला अपरमपार है। आप शांत हो जाइए। आपके इस भंयकर स्वरूप को देखकर देवों को डर लग रहा है, मुझे तो कोई भय नहीं भगवान।
भगवान ने प्रह्लाद को अपने हाथों से उठाया। भगवान ने प्रह्लाद से वर मांगने को कहा। प्रह्लाद ने कहा कोई इच्छा नहीं है आप प्रसन्न हो गए बस इतना बहुत है मेरे लिए। लेकिन भगवान ने प्रह्लाद को वरदान दिया कि भक्ति भावना के साथ अनासक्त भाव में रहते हुए वह ऐश्वर्य का उपभोग करेंगा। जीवन के अंत में वह भगवान को प्राप्त होगा और भक्ति के फलस्वरूप प्रह्लाद की इक्कीस पीढिय़ों का उद्धार होगा।अनन्य भक्ति के यह साधन हैं- 1. प्रार्थना 2. सेवा-पूजा, 3. स्तुति 4. स्वीर्हन वंदन और 5. श्रवण हस्याण। व्यवहारिक कामकाज करते हुए प्रभु का स्मरण और कथा श्रवण इन साधनों से परमहंस गति मिलती है। जो इन साधनों को क्रियांवित करता है उसे परमात्मा के चरणों में अनन्य भक्ति प्राप्त होती है।
भागवत में नारदजी-युधिष्ठिर वार्ता का प्रसंग चल रहा है। तब नारदजी बोले कि- हे युधिष्ठिर। इस प्रकार जय-विजय नामक विष्णु के दो पार्षद ब्रह्मशाप से दैत्य हुए और भगवान ने वराह व नृसिंह अवतार में उनका वध किया। द्वितीय जन्म में यही रावण और कुंभकरण बने। रामजी ने उनका उद्धार किया। तृतीय जन्म में यही शिशुपाल और दंतवक्र बने। कृष्णजी ने उनका वध किया।


दैत्यों को कैसे पुनर्जीवित किया मायासुर ने?

भागवत में अभी नारद-युधिष्ठिर प्रसंग चल रहा है। युधिष्ठिर ने नारदजी से राक्षस मायासुर की कथा पूछी। नारदजी ने सारी कथा बताई कि किस प्रकार देवताओं से पराजित होकर असुरगण मायासुर के पास गए और मायासुर ने लोहे, चांदी और सोने की नगरी बनाई। दैत्यों को मुक्त निवास मिला। उन्होंने पुन: देवताओं पर हमला किया। देवताओं को सताया तो शंकर भगवान ने पशुपास्त्र अस्त्र से मायापुरी को नष्ट किया। जितने राक्षस थे सब नष्ट हो गए उस मायापुरी में। जब मायासुर को विदित हुआ तो उसने सब दैत्यों को उठाकर अमृत कुंड में डाल दिया। वह पुन: जीवित हो गए। शिवजी को बड़ा विषाद हुआ।
भगवान विष्णु को देवों पर दया आई। ब्रह्मा को बछड़ा बनाकर व स्वयं गाय बनकर उस अमृत कुंड के पास गए और उस अमृत को पीने लगे। दैत्यों ने गाय व बछड़ा समझकर पीने दिया और देखते ही देखते सारा अमृत उन्होंने समाप्त कर दिया। फिर युद्ध हुआ। अंत में देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की।तब युधिष्ठिर ने नारदजी से प्रश्न किया कि धर्माचरण से मानव को ज्ञान और भक्ति मिलती है। इसका कारण वर्ण और आश्रम के पवित्र आचरणों से युक्त सनातन धर्म को सुनने की मेरी प्रबल आकांक्षा है। कृपया सुनाइए। सातवें स्कंध के 11-15 अध्याय में मिश्रवासना के प्रसंग हैं।
नारदजी ने कहा कि श्रद्धा और प्रीति के अतिरिक्त धर्म के जो 30 लक्षण हैं। प्रथम सत्य और अंतिम आत्म समर्पण वे इस प्रकार हैं।- 1. सत्य, 2. दया, 4. तप, 3. शोच, योग्य-अयोग्य, विचार, चित्त, वशीकरण, इंद्रिय, निग्रह, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, वेदाध्ययन, सरलता, संतोष, समदर्शिता, विरक्ति, मौन, सब जीवों को दान, सबमें देवदृष्टि, कथा श्रवण, कथावाचन, स्मरण, पूजन, सेवा, आराधना, अर्चना और नमस्कार, दास्य सख्याभाव, आत्मनिवेदन और समर्पण। ऊपर लिखित तीस धर्मों को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को अवश्य पालन करना चहिए।

ऐसा होना चाहिए संन्यासी का जीवन
हम यहां जान लें कि शुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित को भागवत की कथा सुना रहे हैं और उसी के अंतर्गत नारद-युधिष्ठिर का प्रसंग चल रहा है। भक्त प्रहलाद और अजगरमुनि के बीच संन्यास जीवन से संबंधित जो संवाद हुआ था उसे भी नारदजी ने युधिष्ठिर को सुनाया।

एक बार प्रह्लाद अपने मंत्रियों सहित कावेरी नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने एक अजगर वृत्तिधारी धूल धुसरित मुनि को देखा। प्रणाम किया और पूछा कि आप ऐसे क्यों पड़े हैं? तो मुनि ने कहा कि नाना योनियों में विचरण करने के उपरांत कर्म के फलस्वरूप मुझे यह मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है। मैं अब सभी प्रकार के कर्मों से विलग हो गया हूं। आत्मा तो आनंद स्वरूप है यदि इच्छाएं न रहे तो आनंद स्वमेह ही प्राप्त हो जाता है।
मुनि कहने लगे कि- हे दानवराज प्रह्लाद। संसार में मधुमक्खी और अजगर ये दोनों ही मेरे गुरु हैं। जिस प्रकार मधुमक्खी द्वारा संचित मधु को कोई अन्य भी ले जा सकता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा संचित धन-सम्पत्ति को भी उसके बंधु-बांधव भोगते हैं और इसीलिए मैंने संचय वृत्ति का त्याग कर दिया। उसी प्रकार अजगर बिना किसी अपेक्षा के एक स्थान पर पड़ा रहा रहता है तथा जो आसानी से मिल जाता है उसी से संतोष कर लेता है। उसी से मैंने धैर्य धारण करना सीखा है। संक्षेप में उन्होंनें सार की बात कह दी। प्रह्लाद ने उनकी पूजा की और अपने गंतव्य को चले गए।

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