सोमवार, 1 नवंबर 2010

भागवत: १०८: प्रह्लाद क्यों बना भगवान का भक्त?

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि हिरण्यकषिपु तप करने मदरांचल पर्वत पर गया। वहां देवगुरु बृहस्पति ने तोता बनकर उसकी तपस्या भंग कर दी। तब हिरण्यकषिपु घर लौटा तो पत्नी ने देखा कि ये तो तप करने गए थे, लौट क्यों आए? उसने पूछा आप आ गए। हो गई तपस्या। तो हिरण्यकषिपु ने पूरी बात बताई- तप कर तो रहा था मैं, पर एक परेशानी आ गई। ''क्या हुआ'' कयाधु ने पूछा। हिरण्यकषिपु बोला जैसे ही तप के लिए आंख बंद की तो पेड़ के ऊपर तोता बैठा था वह कहने लगा नारायण-नारायण।

कयाधु ने सोचा ये तो कमाल हो गया। इनके मुंह से नारायण-नारायण दो बार निकला। कयाधु बोली अरे ये क्या बोल रहे हैं आप? उसने बोला नारायण-नारायण? कयाधु ने बोला 108 बार यदि इनके मुंह से नारायण कहलवा दूं तो ये पवित्र हो जाएंगे। तो बार-बार कयाधु उससे पूछ रही है क्यों जी वो आप क्या बता रहे थे? हिरण्यकषिपु ने पुन: बोला। बता तो दिया नारायण-नारायण कर रहा था। रात को कयाधु ने सोचा कि पूरे 108 पाठ करा ही लूंगी। उसने पूछा सोने के पहले एक बात तो बताओ आपको मैंने इतना विचलित नहीं देखा आखिर वो था क्या जिसने आपको इतना विचलित कर दिया। बोला नारायण था।
परेशान हो गया नारायण से नारायण, नारायण 108 बार उसने नारायण बुलवाया और कयाधु ने कहा अब मेरा काम हुआ और उस रात को प्रह्लाद की गर्भ में स्थापना हो गई। नारायण बोलते ही प्रह्लाद गर्भ में आए। बीजारोपण करते समय भगवान का स्मरण करने से ही प्रह्लाद भगवान नारायण का भक्त हुआ। ये कथा सिर्फ ये संकेत दे रही है कि प्रसूता स्त्री के भीतर जो भी चलेगा उसका सीधा प्रभाव संतान पर पड़ता है। संतान का बीजारोपण जब करने जाएं तो देशकाल, परिस्थिति, चिंतन, मनन, आचरण, चरित्र, परंपरा, कुल, वंश, सिद्धांत और अपने पितरों को याद किए बिना कभी भी संतान का बीजारोपण मत करिए।

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