बुधवार, 17 नवंबर 2010

भागवत: ११९ इसलिए भगवान शंकर कहलाते हैं नीलकंठ


भागवत में आगे समुद्रमंथन की कथा आ रही है। एक बार ऐसा हुआ कि दैत्यों ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। देवता परेशान होकर भगवान के पास गए। भगवान ने कहा -ऐसा करो कि समुद्र को मथो। जब उसे मथोगे तो उसमें से अमृत निकलेगा और वो अमृत तुम पी लेना तो तुम अमर हो जाओगे उसके बाद लड़ते रहना दैत्यों से। पर इसमें दैत्यों की भी जरूरत पड़ेगी। दैत्यों के पास जाकर प्रस्ताव रखा। दैत्यराज बलि को भी प्रस्ताव ठीक लगा।
मंदराचल पर्वत की मथनी बनाई वासुकीनाग की रस्सी बनाई और चले सब मथने के लिए। जैसे ही मंथना आरंभ किया और 14 रत्न निकलना शुरू हुए तो सबसे पहले निकला कालकूट नाम का विष। सब देवता और दैत्य भागे कि इसका क्या करेंगे, त्राहि-त्राहि मच गई, देवताओं ने भगवान विष्णु से कहा-ये आपने क्या कर दिया। आपने तो कहा था कि मथेंगे तो अमृत निकलेगा, अमृत का तो पता नहीं ये तो विष निकल आया। भगवान ने कहा अमृत पाने के लिए विषपान करना पड़ता है। अमृत यदि आप जीवन में पाना चाहें, चरम पाना चाहें तो कुछ न कुछ प्रतिकूलता से गुजरना पड़ेगा, संघर्ष करना पड़ेगा।
सब देवता शंकरजी के पास पहुंचे। देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि मंथन में विष निकल आया है। आप पान कर लें इसका। भगवान शंकर ने अपने चुल्लू में विष लिया और जैसे ही चुल्लू में लेकर विष पीना आरंभ किया तो उन्होंने विचार किया कि बाहर निकला तो दुनिया परेशान और भीतर गया तो मेरा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा अत: उसको कण्ठ में रोक लिया, तब से वह नीलकंठ कहलाए।

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