रविवार, 5 दिसंबर 2010

महाभारत में कौन किसका अवतार था...

महाभारत में जितने भी प्रमुख पात्र थे वे सभी देवता, गंधर्व, यक्ष, रुद्र, वसु, अप्सरा, राक्षस तथा ऋषियों के अंशावतार थे। भगवान नारायण की आज्ञानुसार ही इन्होंने धरती पर मनुष्य रूप में अवतार लिया था। महाभारत के आदिपर्व में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। उसके अनुसार-

वसिष्ठ ऋषि के शाप व इंद्र की आज्ञा से आठों वसु शांतनु के द्वारा गंगा से उत्पन्न हुए। उनमें सबसे छोटे भीष्म थे। भगवान विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए। महाबली बलराम शेषनाग के अंश थे। देवगुरु बृहस्पति के अंश से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ जबकि अश्वत्थामा महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुए। रुद्र के एक गण ने कृपाचार्य के रूप में अवतार लिया। द्वापर युग के अंश से शकुनि का जन्म हुआ। अरिष्टा का पुत्र हंस नामक गंधर्व धृतराष्ट्र तथा उसका छोटा भाई पाण्डु के रूप में जन्में। सूर्य के अंश धर्म ही विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृतिका का जन्म हुआ था। मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री गांधारी के रूप में हुआ था।
कर्ण सूर्य का अंशवतार था। युधिष्ठिर धर्म के, भीम वायु के, अर्जुन इंद्र के तथा नकुल व सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के रूप में लक्ष्मीजी व द्रोपदी के रूप में इंद्राणी उत्पन्न हुई थी। दुर्योधन कलियुग का तथा उसके सौ भाई पुलस्त्यवंश के राक्षस के अंश थे। मरुदगण के अंश से सात्यकि, द्रुपद, कृतवर्मा व विराट का जन्म हुआ था। अभिमन्य, चंद्रमा के पुत्र वर्चा का अंश था। अग्नि के अंश से धृष्टधुम्न व राक्षस के अंश से शिखण्डी का जन्म हुआ था।
विश्वदेवगण द्रोपदी के पांचों पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, शतानीक और श्रुतसेव के रूप में पैदा हुए थे। दानवराज विप्रचित्ति जरासंध व हिरण्यकशिपु शिशुपाल का अंश था। कालनेमि दैत्य ने ही कंस का रूप धारण किया था। इंद्र की आज्ञानुसार अप्सराओं के अंश से सोलह हजार स्त्रियां उत्पन्न हुई थीं। इस प्रकार देवता, असुर, गंधर्व, अप्सरा और राक्षस अपने-अपने अंश से मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुए थे।

दुर्योधन का शरीर अष्ट धातु का कैसे बना ?
दुनिया की चुनिंदा मशहूर कहानियों में महाभारत की कहानी अपनी विशिष्ट पहचान रखती है। महाभारत की ख्याति का पता इसी बात से चल जाता है कि, इसके बारे में यह प्रसिद्ध है कि जो महाभारत में नहीं वह भारत में कहीं नहीं। महाभारत की घटना ऐतिहासिक सत्य पर आधारित है। महाभारत कथा की मुख्य घटना, कुरुक्षेत्र में हुए युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध के एक पक्ष में दुर्योधन था, जो अधर्म के मार्ग पर चलते हुए सम्पूर्ण राज्य को हड़पना चाहता था। जबकि दूसरे पक्ष में थे पांडव जो अपना अधिकार पाने के लिए धर्म युद्ध लड़ रहे थे। पांडवों के धर्म पथिक होने का प्रबल प्रमाण यही है कि स्वयं श्री कृष्ण उनके साथ थे।
कौरव पक्ष का प्रमुख स्वयं दुर्योधन ही था। युद्ध का जब निर्णायक समय आया तो दुर्योधन अपनी माता गांधारी से आशीर्वाद प्राप्त करने उनके महल में पहुंचा। गांधारी एक पतिव्रता एवं तपस्विनी स्त्री थी। अपने जन्मांध पति को सांसारिक सौन्दर्य को देख पाने में असमर्थ देखकर गांधारी को बडा़ मानसिक क्लेश हुआ। तभी से गांधारी ने संकल्प किया कि, जिस सुख को उसके पति नहीं भोग सकते उसे वह भी न भोगेगी। ऐसा सोचकर गांधारी ने सदैव के लिये अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली।
नेत्र शक्ति- मनुष्य शरीर का विज्ञान यह कहता है कि, इंसान की सर्वाधिक शक्ति आंखों के द्वारा नष्ट होती है। यदि इंसान पांच मिनिट आंखे बंद रखे, तो उसे १-घंटा अधिक श्रम करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। जबकि गांधारी ने तो लगातार कई वर्षो तक आंखे बंद रखने की साधना की थी। अंधे व्यक्तियों में पाए जाने वाली अद्भुत योग्यताएं भी इसी कारण प्रकट होती हैं। क्योंकि आंखों के द्वारा जाया होने वाली नैत्र शक्ति उनकी खर्च होने से बच जाती है। वर्षों की साधना से गांधारी की आंखों में प्रचंड शक्ति एकत्रित हो चुकी थी। दुर्योधन मात्र गुप्तागों के स्थान पर पत्ते लपेट कर गांधारी के पास पहुंचा। वर्षों की साधना से अर्जित नेत्र शक्ति को गांधारी ने दुर्योधन के शरीर में प्रवाहित कर उसे वज्र का बना दिया। वज्र यानि कि अष्ट धातुओं का सुनिश्चित अनुपात। इस प्रकार दुर्योधन ने अष्टधातु निर्मित वज्र का शरीर प्राप्त किया।

जीवन का महाभारत हमें लडऩा भी है और जीतना भी
एक महाभारत वो था जो कुरुक्षेत्र की भूमि पर लड़ा गया था। जिसमें एक और अन्याय और अधर्म थे तो दूसरी तरफ न्याय और धर्म। जिधर धर्म था, उधर भगवान थे और जिस ओर स्वयं भगवान हों वहां जीत तो सुनिश्चित ही थी। ऐसा ही एक महाभारत दुनिया के हरेक इंसान को लडऩा होता है। जबसे इंसान को यह शरीर मिला है, जबसे वह पैदा हुआ है, तभी से संघर्ष .... संघर्ष.... संघर्ष ।
ऐसा ही हम सभी के जीवन का कुरुक्षेत्र भी है। जैसे ही बच्चा पैदा होता है पहले रोता है। तो रोने से शुरू होती है उसके संघर्षों की कहानी। आज ये करूंगा, कल वो करूंगा। मतलब कर्म के बगैर आदमी रह नहीं सकता। जब तक शरीर है एक क्षण भी हम बिना कर्म के रह नहीं सकते। मन भी कहता रहता है ये करूंगा वो करूंगा। तो जब तक जीवन है तब तक कर्म करना ही होता है,लेकिन मूल बात है कुशलता पूर्वक कर्म करना। बिना कर्म के तो रहना मुश्किल है और कर्म से छूटना मुश्किल है। लेकिन कर्म के बंधन से छूटना मुश्किल नहीं है, यह युक्ति गीता के तीसरे अध्याय 'कर्मयोग' में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं।
महाभारत के विश्वविख्यात युद्ध के लिये स्वयं श्री कृष्ण द्वारा जगह का चयन किया गया। कुरुक्षेत्र के विशाल मेदान में दोनों ओर सेनाएं हैं, रथ हैं, रथ में अर्जुन बैठे हैं और कृष्ण सारथी के रूप में रथ के अश्वों की बागडोर अपने हाथ में लिए चला रहे हैं। थोड़ा समझें, यह केवल ऐतिहासिक घटना मात्र नहीं है, इसमें एक दर्शन है। जीवन स्वयं में कुरुक्षेत्र है। हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे पल आते हैं जब हम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े हो जाते हैं, अर्जुन की तरह। क्या करना चाहिए, क्या नहीं, हमारी समझ में नहीं आता। अपना कर्तव्य क्या है? अपना धर्म क्या है? गीता के द्वारा भगवान हमें याद दिलाते हैं कि-हमारा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? और इस लक्ष्य को सफलतापूर्वक हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं।

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