बुधवार, 1 दिसंबर 2010

तीन कहानियाँ

सचाई का पाठ
एक सेठ दान-पुण्य के लिए हर रोज भंडारे का आयोजन करता था। सेठ का अनाज का व्यापार था। हर साल अनाज के गोदामों की स
फाई होती थी। उस समय घुन लगे बेकार गेहूं को इकट्ठा करके सेठ उसे पिसवाता और उसी आटे का भंडारा साल भर चलता था। लेकिन इसकी जानकारी किसी को न थी। सेठ का एक बेटा था। उसकी शादी हुई। सेठ के घर काफी समझदार बहू आई। जब बहू को पता चला कि उसके ससुर सड़े हुए गेहंू के आटे की रोटियां गरीबों को खिलाते हैं, तो उसे बहुत दुख पहुंचा। एक दिन जब सेठ भोजन करने बैठा तो बहू ने उसकी थाली में उसी आटे की रोटियां परोस दीं। सेठ ने समझा कि बहू ने कोई नया पकवान बनाया है। लेकिन जैसे ही मुंह में पहला कौर डाला, हिचकी आने लगी। उसने उस कौर को थूक दिया और बहू से बोला, 'यह आटा कहां से आया है? क्या घर में और आटा नहीं था?' बहू विनम्रता से बोली, 'आटा तो बहुत है बाबूजी, लेकिन मैंने सोचा कि आपके भंडारे में जिस आटे की रोटी बनती है उसी से घर में भी बनाई जाए।' इस पर सेठ ने कहा, 'लेकिन बहू वह आटा तो गरीबों के खाने के लिए होता है।' बहू बोली, 'पिता जी मुझे बताया गया है कि परलोक में भी प्राणी को वही खाना मिलता है जो वह गरीबों को खिलाता है, इसलिए सोचा कि क्यों न अभी से आपको उसी रोटी की आदत डलवाई जाए।' सेठ लज्जित हो गया। उसने उसी दिन सारा बेकार आटा पशुओं को खिला दिया और गरीबों के खाने के लिए अच्छे गेहूं निकलवाए।

स्वर्ग और नरक
एक युवा सैनिक ने धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था। वह जानना चाहता था कि स्वर्ग और नरक में क्या अंतर है?
उसने एक संत से पूछा, 'बताएं कि क्या स्वर्ग और नरक वास्तव में होते हैं या ये सिर्फ कल्पना हैं?' संत ने उसे अच्छी तरह देखा और पूछा, 'युवक, तुम्हारा पेशा क्या है?'
सैनिक ने अपने पेशे के बारे में बताया तो संत ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, 'तुम और सैनिक! तुम्हें कौन सैनिक कहेगा। किसने तुम्हारी भर्ती कर दी। देखकर तो तुम कायर लगते हो। भय और आशंका तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है।' यह सुनकर उस सैनिक का खून खौल उठा। उसने बंदूक निकाल ली। संत ने कहा, 'तुम बंदूक भी रखते हो। बहुत अच्छे! तुम क्या इस खिलौने वाली बंदूक से मुझे डराओगे।
इस बंदूक से तो बच्चा भी नहीं डरेगा।' यह सुनकर सैनिक अपना आपा खो बैठा, उसने झट से बंदूक का घोड़ा दबाने के लिए हाथ बढ़ाया तो संत ने कहा, 'लो, बस यही है नरक का द्वार।' संत की बात का मर्म समझते ही युवक की आंखें खुल गई और अपने किए पर वह ग्लानि से भर गया। वह संत के चरणों में गिर पड़ा। चरणों में गिरते ही संत ने कहा, 'लो, स्वर्ग का द्वार खुल गया। स्वर्ग एवं नरक, आनंद एवं दु:ख ही वह स्थिति है जो हम शांत रहकर या क्रोध करके उत्पन्न करते हैं। जिस क्षण व्यक्ति को क्रोध आता है उसका संपूर्ण अस्तित्व गहरी अशांति को प्राप्त हो जाता है। यह प्रत्यक्ष नरक के समान दुखदायी होता है। खुद की शांति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं जब हम इस जिम्मेदारी को उठाते हैं, स्वर्ग का निर्माण कर रहे होते हैं। संसार हमारी ही सृष्टि है।'

संघर्ष की राह
बालक ईश्वरचंद्र के पिता को तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था। परिवार बड़ा था इसलिए घर का खर्च चलना मुश्किल
था। ऐसी स्थिति में बालक ईश्वरचंद्र की पढ़ाई का प्रबंध कैसे होता। ईश्वरचंद्र ने अपने पिता की विवशता को देख कर अपनी पढ़ाई के लिए रास्ता खुद ही निकाल लिया। उसने गांव के उन लड़कों को अपना मित्र बनाया, जो पढ़ने जाते थे। उनकी पुस्तकों के सहारे उसने अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक दिन कोयले से जमीन पर लिख कर उसने अपने पिता को दिखाया। पिता ने ईश्वरचंद्र की विद्या के प्रति लगन देखकर तंगी का जीवन जीते हुए भी उसे गांव की पाठशाला में भर्ती करा दिया। स्कूल की सभी परीक्षाओं में ईश्वरचंद्र ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे की पढ़ाई के लिए फिर आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी। ईश्वरचंद्र ने फिर स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर मांगा।
उसने कहा, 'आप मुझे किसी विद्यालय में भर्ती करा दें। फिर मैं आप से किसी प्रकार का खर्च नहीं मांगूंगा।' ईश्वरचंद्र का कोलकाता के एक संस्कृत विद्यालय में दाखिला करा दिया गया। विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने अपनी लगन और प्रतिभा से शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया। उसकी फीस माफ हो गई। ईश्वरचंद्र के मित्रों ने किताबें उपलब्ध करा दीं। फिर उसने अपना खर्च पूरा करने के लिए मजदूरी शुरू कर दी। ऐसी स्थिति में भी उसने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुण हो गया। जिसके लिए पढ़ना ही कठिन था वह एक बड़ा विद्वान बन गया। आगे चल कर यही बालक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम से विख्यात हुआ।
संकलन: लाजपत राय सभरवाल

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