शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

भागवत १४५: जब कंस को सताने लगा मृत्यु का भय

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि आकाशवाणी से डरकर कंस ने देवकी व वसुदेव की बंदी बना लिया। श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित। वसुदेवजी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीति से कंस को बहुत समझाया परन्तु वह क्रूर तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था। उसे देवताओं से मारे जाने का भय हो रहा था इसलिए वसुदेवजी के समझाने पर भी वह नहीं माना।

वसुदेवजी ने कंस का विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिये। इस मृत्युरूप कंस को अपने पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकी को बचा लूं। वसुदेवजी ने कहा- कंस! आपको देवकी से तो कोई भय है नहीं, जैसा कि आकाशवाणी ने कहा है। भय है पुत्रों से सो इसके पुत्र मैं आपको लाकर सौंप दूंगा। कंस मान गया।समय आने पर देवकी ने पहले पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम था कीर्तिमान। वसुदेवजी ने उसे लाकर कंस को दे दिया। ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बात का था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो जाएं।
जब कंस ने देखा कि वसुदेवजी का अपने पुत्र के जीवन और मृत्यु में समान भाव है एवं वे सत्य में पूर्ण निष्ठावान भी हैं, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनसे हंसकर बोला-वसुदेवजी! आप इस नन्हें से सुकुमार बालक को ले जाइये। इससे मुझे कोई भय नहीं है, क्योंकि आकाशवाणी ने तो ऐसा कहा था कि देवकी के आठवें गर्भ से उत्पन्न सन्तान के द्वारा मेरी मृत्यु होगी। वसुदेवजी ने कहा-ठीक है और उस बालक को लेकर वे लौट आए।

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