गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

भागवत: १३२: जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति दिलाती है रामकथा

भागवत में हम सूर्यवंश की कथा सुन रहे हैं। भागवत में राम जन्म की चर्चा नहीं आई है पर आज हम इस गौरव की अनुभूति को ले लें कि कृष्ण जन्म तो हम कर ही रहे हैं साथ ही संक्षेप में रामकथा का श्रवण भी करते चलें। रामकथा जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति दिलाती है। सूर्यवंशी राजा दशरथ के यहां चार पुत्र हुए । सबसे बड़े थे राम, फिर भरत, लक्ष्मण और सबसे छोटे थे शत्रुघ्न। चारों राजकुमार बड़े हुए, लेकिन रामजी को देखकर दशरथजी को एक दिन चिन्ता हुई। रामजी जैसे-जैसे बड़े होने लगे, आचरण में वैराग्य दिखने लगा।

भजन-पूजन करते, अच्छी-अच्छी बातें करते तो दशरथजी को चिन्ता हुई कि मेरे बेटे को ये वैराग्य कैसे पैदा हो रहा है जबकि मैं तो राजा हूं। वे गुरु के पास गए। ऐसा कहते हैं कि वशिष्ठजी ने भगवान को योग वशिष्ठ सीखाया। उन्होंने कहा कि वैराग्य होना बहुत अच्छी बात है पर आप राजकुल के सदस्य हैं। आपके दायित्व क्या होने चाहिए, अपने कर्तव्यों को पहचानें और भगवान फिर उस मार्ग पर चलें। चारों राजकुमार बड़े हो गए। एक दिन अचानक ऋषि विश्वामित्रजी आए। विश्वामित्रजी ने दशरथजी से कहा-हम बहुत परेशान हैं, राक्षस यज्ञ नहीं करने देते। आप ये दोनों राजकुमार राम और लक्ष्मण हमें दे दें।
दशरथजी यह सुनकर संशय में पड़ गए। कहा- इतने सुकोमल राजकुमार राक्षसों से कैसे लड़ेंगे? आप इन छोटे-छोटे बच्चों को राक्षसों से लड़ाने ले जा रहे हैं, मना करने लग गए विश्वामित्रजी को। विश्वामित्रजी ने वशिष्ठजी की ओर देखा। वशिष्ठजी ने दशरथजी से कहा कि तुम्हारे बच्चे यज्ञ से पैदा हुए हैं और यज्ञ के लिए मांगे जा रहे हैं, दे दो। ये कुछ सीखकर ही आएंगे। सैद्धांतिक ज्ञान श्रीराम ने वशिष्ठ से प्राप्त किया। अब व्यावहारिक ज्ञान विश्वामित्रजी से प्राप्त करने जा रहे हैं। दोनों राजकुमारों को विश्वामित्र ले गए। दोनों राजकुमारों ने दैत्यों से यज्ञ की रक्षा की और यज्ञ संपन्न हुआ।

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