शनिवार, 4 दिसंबर 2010

भागवत: १३४: जब भगवान राम को मिला वनवास

अभी तक हमने पढ़ा भगवान राम का विवाह हुआ और दशरथ से सोचा कि राम को राजा भी बना दूं। यह बात मंथरा को पता लग गई। मंथरा नीचे आई और सीधे कैकयी के भवन में चली गई और कैकयी को बुद्धि फेर दी और कहा देखो आपको राजा से दो वरदान लेना हैं। एक काम करो, कोपभवन में चली जाओ और राजा आए तो मांग लेना। राजा जब रात को काम निपटाकर आए तो कैकयी के महल में गए। जैसे ही द्वार पर गए तो मंथरा मिल गई, मंथरे कहां है रानी। मंथरा ने कहा-कोप भवन में, राजा घबराए।

दशरथ अन्दर गए तो देखा कैकयी नीचे बैठी जमीन पर बाल बिखरे हुए, लम्बी-लम्बी सांसे ले रही हैं। दशरथजी कैकयी से कह रहे हैं हे मृदुवचनी, हे गजगामिनी, हे कोमलनयनी। यहां कोप भवन में क्यों बैठी हो? कैकयी ने कहा-आपने मुझे दो वरदान मांगने के लिए कहा था। वह आज मैं मांगती हूं कि भरत को राजगद्दी दो और राम को वनवास। यह सुनकर दशरथजी अचेत हो गए, होश में आने पर बोले-ये वरदान वापस ले ले। मैं तेरे पैर पड़ता हूं। कैकयी लाख समझाने पर भी नहीं मानी। भगवान राम को सूचना मिली कि आपका राजतिलक निरस्त हो रहा है। आपको वन जाना है।
भगवान ने कहा स्वीकार है। भगवान जब वन को जाने लगे तब सीताजी ने कहा मैं भी चलूं, लक्ष्मणजी बोले मैं भी चलूं। भगवान ने कहा-नहीं, तुम्हें यहां रहना है। जब रामजी ने बिल्कुल मना कर दिया तो लक्ष्मण ने कहा आप जाओगे और जैसे ही सरयू नदी पार करोगे मैं सरयू में कूदकर जान दे दूंगा। राम जानते थे कि ये जो कह रहा है वह कर देगा। तो राम, सीता और लक्ष्मण तीनों वन जाने के लिए निकले।
क्रमश:...

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