शनिवार, 11 दिसंबर 2010

भागवत १४०: जब पृथ्वी राजविहीन हो गई तब देवताओं ने क्या किया?

रामकथा के बाद शुकदेवजी अब कथा को आगे बढ़ाते हैं। उन्होंने परीक्षित को बताया कि एक बार इक्षवाकु के पुत्र निमी ने अपने मन में यज्ञ करने का निश्चय किया और महर्षि वसिष्ठ से ऋत्विज बनने की प्रार्थना की। वसिष्ठजी ने बताया कि पूर्व से ही उनको इन्द्र ने यज्ञ के लिए निवेदन किया है तो यज्ञ पूर्ण होने पर ही वे निमी के यज्ञ में आ पाएंगे। निमी को लगा कि न मालूम कब जीवन समाप्त हो जाए, विलम्ब नहीं करना चाहिए, इसलिए उन्होंने दूसरे ऋषियों बुलाकर यज्ञ आरम्भ कर दिया।
इधर इन्द्र के यज्ञ से जब वसिष्ठ लौटे और निमी को जब यज्ञ करते देखा तो उन्हें क्रोध आ गया। उन्होंने निमी को शाप दिया। निमी ने भी वसिष्ठ को लोभी होने का शाप दे दिया और दोनों का अंत हो गया। कालान्तर में वसिष्ठ की तो उत्पत्ति वरूण से हुई किन्तु निमी ने तो पुन: देह धारण की इच्छा ही नहीं की थी। तब पृथ्वी राजा विहीन हो गई तो देवताओं ने निमी के शरीर को मथकर उससे पुत्र उत्पन्न किया। देह सम्बन्ध के बिना उत्पन्न होने से उसका नाम विदेह पड़ा। इस वंश का भावी उत्पादक होने से उसको जनक कहा गया।

शुकदेवजी ने कहा- राजा जनक की वंशावली विस्तार में सुनिए। जिस वंश से पुरुरवा आदि राजा हुए वे सोमवंशी कहलाए। नारायण की नाभि से निकले हुए कमल से ब्रह्माजी और ब्रह्माजी से उनके गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल ही अत्रि नामक पुत्र का जन्म हुआ। अत्रि के नेत्रों से आनन्दमय अश्रुओं से अमृतमय चन्द्रमा उत्पन्न हुआ। चन्द्रमा ने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा को छीन लिया। बृहस्पति ने तारा को वापस करने के लिए बार-बार कहा, किन्तु चन्द्रमा नहीं माना, फलस्वरूप संग्राम छिड़ गया।
ब्रह्माजी ने चन्द्र को डांटा और तारा वापस दिलाई। इस अवधि में तारा गर्भवती हो गई। उसके गर्भ से बुध ने जन्म लिया। उस बालक पर बृहस्पति और चन्द्र दोनों अपना अधिकार जताने लगे। तब ब्रह्माजी ने तारा के वास्तविक पिता के विषय में जानकर उसे चन्द्र को दिलवा दिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें