शनिवार, 11 दिसंबर 2010

बड़ा कौन

एक बार सम्राट अशोक अपने विश्वस्त मंत्री भ्रामात्य के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक संत को आते देख
वह घोड़े से नीचे उतरे और उन्होंने संत को दंडवत प्रणाम किया। यह बात भ्रामात्य को अच्छी नहीं लगी। संत के जाने के बाद भ्रामात्य ने अशोक से पूछा, 'राजन्, मेरी समझ में नहीं आया कि इतने बड़े सम्राट होकर आपने एक साधारण साधु को दंडवत प्रणाम क्यों किया।' उस समय अशोक ने कोई उत्तर नहीं दिया। दो दिनों के बाद उसने कई जानवरों के मुखौटों के साथ एक साधु और एक राजा का सुंदर मुखौटा भ्रामात्य को देते हुए कहा, 'गांव में जाकर इन मुखौटों को बेच दीजिए। मैं जानना चाहता हूं कि प्रजा किसे ज्यादा पसंद करती है।'
भ्रामात्य उन मुखौटों को बेचने के लिए गांव में गया। साधु का मुखौटा सबसे पहले बिक गया। उसके बाद सभी जानवरों के मुखौटे भी बिक गए। मगर राजा का मुखौटा किसी ने नहीं खरीदा। भ्रामात्य उसे लेकर लौट आया। अशोक ने उसे फिर से जाने को कहा। और यह भी निर्देश दिया कि यह मुखौटा किसी को मुफ्त दे दे। भ्रामात्य दोबारा गया मगर गांव वालों ने मुखौटा लेने से इनकार कर दिया। बोले, 'इस कचरे को लेकर हम क्या करेंगे।' भ्रामात्य फिर लौट आया और सम्राट को गांव वालों की बात बताई। अशोक ने कहा, 'अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। संत हमेशा पूजनीय होते हैं क्योंकि वे मोह माया से दूर रह कर पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं। राजा का महत्व तात्कालिक होता है पर संत की कीर्ति हमेशा बनी रहती है।'


मूर्खों की चिंता
महान दार्शनिक सुकरात बेहद साधारण जीवन जीते थे। उन्हें जो मिल जाता वह उसी में संतोष करते थे। उनके प्रशं
सकों और मित्रों की एक बड़ी जमात थी। एक दिन दोपहर में सुकरात विश्राम कर रहे थे। तभी उनके कुछ मित्र आ गए। सुकरात ने आगे बढ़कर स्नेहपूर्वक उनका स्वागत किया। फिर अनेक मुद्दों पर बातचीत होने लगी। बात करते हुए अचानक सुकरात को ख्याल आया कि उन्होंने तो मित्रों से भोजन के बारे में पूछा ही नहीं। सुकरात ने अपने दोस्तों से कहा, 'माफ कीजिए, मैं एक बात तो पूछना भूल ही गया। यह बताएं कि आप लोग भोजन करके आए हैं या आप सबका भोजन तैयार कराऊं ?'
मित्रों ने कहा, 'भोजन हुआ तो नहीं है। यदि कष्ट न हो तो तैयार कराएं।' सुकरात घर के अंदर गए। उन्होंने पत्नी से कहा, 'मेरे कुछ दोस्त आए हुए हैं। उनके लिए भोजन का प्रबंध करना है।' पत्नी नाराज हुई। बोली, 'आप कैसी बात कर रहे हैं। आखिर घर में रखा ही क्या है जो मेहमानों को प्रस्तुत किया जाए। अभी तो प्रबंध होना संभव नहीं।' सुकरात ने कहा, 'घर में जो कुछ है, वही तैयार कर मेहमानों को परोस दो। कोई परेशानी नहीं है।' पत्नी बोली, 'अच्छा नहीं लगेगा। अपनी बात अलग है। मेहमान क्या सोचेंगे और क्या कहेंगे।' सुकरात हंसे और बोले, 'तुम जो कुछ है वही तैयार कर लो। यदि वे बुद्धिमान होंगे तो हमारी मजबूरी समझेंगे और कुछ न कहेंगे और यदि बुद्धिमान न हुए, मूर्ख हुए तो जो कहना चाहें कहें। हम मूर्खों की चिंता क्यों करें।'


सच्चा कलाकार
प्रख्यात चित्रकार माइकल एंजेलो से कई चित्रकार ईर्ष्या करते थे। उन्हीं में से एक चित्रकार ने सोचा कि मैं एक ऐसा
चित्र बनाऊंगा जिसके आगे एंजेलो की कलाकृति फीकी पड़ जाएगी। यह सोचकर उसने काफी मेहनत से एक महिला का चित्र बनाया। उसने उस चित्र को एक ऊंचे स्थान पर रखा ताकि वहां से गुजरते लोग उसे आसानी से देख सकें। यद्यपि चित्र बहुत सुंदर था, फिर भी चित्रकार को अहसास हो रहा था कि इसमें कुछ कमी रह गई है। पर कमी कहां है और क्या है, यह जानने में वह खुद को असमर्थ पा रहा था। एक दिन एंजेलो उस रास्ते से जा रहे थे। उनकी नजर उस चित्र पर पड़ी। उन्हें वह चित्र बड़ा खूबसूरत लगा और उसमें जो कमी थी, वह भी उनके ध्यान में आ गई। एंजेलो चित्रकार के घर पहुंचे। चित्रकार ने एंजेलो को पहले कभी देखा नहीं था। उसने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। एंजेलो ने कहा, 'तुमने चित्र तो बहुत सुंदर बनाया है, पर मुझे इसमें एक कमी लग रही है। 'चित्रकार बोला, 'हां मुझे भी आभास हो रहा है कि कुछ कमी रह गई है।' एंजेलो ने कहा, 'जरा तुम अपनी कूची देना, मैं उस कमी को पूरा कर देता हूं।' चित्रकार बोला, 'मैने उसे बड़ी मेहनत से बनाया है, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे हाथ से मेरा चित्र बिगड़ जाए।' एंजेलो ने कहा, ' विश्वास करो, मैं तुम्हारा चित्र खराब नहीं करूंगा।' उस चित्रकार से कूची लेकर एंजेलो ने चित्र की दोनों आंखों में दो बिंदी लगा दी। दरअसल चित्रकार आंखों में दो काली बिंदियां लगाना भूल गया था, जिस कारण चित्र अपूर्ण लग रहा था। अब वह चित्र सजीव प्रतीत होने लगा। उसका सौंदर्य बढ़ गया। उस चित्रकार के पूछने पर जब एंजेलो ने अपना नाम बताया तो चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने एंजेलो को बताया कि वह उनके बारे में क्या सोचता रहा था। उसने एंजेलो से क्षमा मांगी।

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