मंगलवार, 4 जनवरी 2011

भागवत-१५७

श्रीकृष्णका अर्थ ही आनंद है
पं. विजयशंकर मेहता
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि भगवान शंकर भगवान श्रीकृष्ण के बाल रूप के दर्शन करने आए। यशोदाजी बालकृष्ण को शिवजी को देती हैं। शिवजी कहते हैं-यशोदा तेरा पुत्र तो सम्राट होने वाला है। शिवजी अति आनन्द की अवस्था में नाचने लगे। बालकृष्ण को हृदय में बसाकर शिवजी कैलाश लौटे।अब बांके बिहारीजी की लीला आरम्भ हो रही है और हमने देखा कि जब कृष्ण का जन्म होता है और हम आनन्द मनाते हैं तो कहा जाता है नन्द घर आनन्द भयो, नन्द घर कृष्ण भयो, यह नहीं कहा जाता। क्योंकि कृष्ण आनन्द का पर्याय है। कृष्ण का जन्म हुआ इसका मतलब आनन्द का जन्म हुआ। अब आनन्द ही आनन्द है। आनन्द मनाने की तैयारी गोकुल के लोग कर रहे हैं।

कृष्ण जन्म के कुछ दिन बाद नन्द बाबा कंस को कर देने के लिए मथुरा पहुंचे। उन्होंने कंस को स्वर्णथाल तथा पंचरत्न भेंट किए। यह समाचार भी दिया कि उनके घर पुत्र का जन्म हुआ है। कंस क्या जाने कि कन्हैया उसका ही काल है। उसने बालक को आशीर्वाद दिया और कह दिया कि वह भी बड़ा होकर राजा बने। कंस ने अनजाने में ही कृष्ण को आशीष दे दिया। शत्रु भी जिसे आशीर्वाद दे और वंदन करे, वो है श्रीकृष्ण।इधर जब कंस को योगमाया द्वारा कही गई बात का स्मरण हुआ तो वह घबरा गया। उसने पूतना नामक राक्षसी को बुलाया और उससे कहा कि आस-पास के गांवों में जितने भी नवजात शिशु हैं उनका वध कर दे।
पूतना भादौ कृष्ण चतुर्दशी की सुबह गोकुल आई। पूत का अर्थ है पवित्र। जो पूत नहीं है वह है पूतना। पूतना चतुर्दशी के दिन क्यों आई क्योंकि उसने चौदह ठिकानों पर वास किया। अविद्या, वासना आदि चौदह स्थानों में बसती है। पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार यह चौदह स्थान हैं वासना व अविद्या रूपी पूतना के बसने के।

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