शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

भागवत-१६०

जब श्रीकृष्ण ने किया उत्कच का उद्धार
पं. विजयशंकर मेहता
श्री शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! गोकुल में एक बार भगवान श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घर में बहुत सी स्त्रियों की भीड़ लगी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। उन्हीं स्त्रियों के बीच में खड़ी हुई यशोदाजी ने अपने पुत्र का अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मण मंत्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे।

शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोए हुए थे। उनके पांव अभी लाल-लाल कोंपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे। परन्तु वह नन्हा सा पांव लगते ही विषाल छकड़ा उलट गया। उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसों से भरी हुई मटकियां और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब के सब फूट गए और छकड़े के पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गए, उसका जूआ फट गया।इस छकड़े में हिरण्याक्ष का पुत्र उत्कच था। जिसे लोगश ऋषि ने आश्रम के वृक्ष उखाडऩे के अपराध में शाप दिया था। कृष्ण का पैर छकड़े से लगा, छकड़ा उलटा और उसमें बैठे उत्कच को परमगति मिल गई। वह शाप से मुक्त हो गया।
कोई उत्कच को देख नहीं पाया लेकिन नंदलाल ने उसका उद्धार कर दिया।करवट बदलने के उत्सव में जितनी भी स्त्रियां आई हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गए। वे आपस में कहने लगे-अरे, यह क्या हो गया? वह छकड़ा अपने आप कैसे उलट गया?यशोदाजी ने समझा यह किसी राक्षस आदि का उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोद में लेकर ब्राह्मणों से वेदमन्त्रों के द्वारा शान्तिपाठ कराया।

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