शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

तितलियाँ आसपास

- विशाल मिश्रा

ग़ज़ल एक ऐसा शफ़्फ़ाफ आइना है जिसके हर शेर में एक नई तस्वीर मुस्कुराती है,
सिर्फ़ हुस्न और इश्क़ की बात नहीं वह ज़िन्दगी के हर पहलू की बात भी समझाती है।

राहत इंदौरी की इन पंक्तियों की खुशबू महसूस की जा सकती है अज़ीज़ अंसारी की छोटी-छोटी नज़्मों की पुस्तक 'ति‍तलियाँ आसपास' में।

पुस्तक की हर नज्‍़म आदमी की ‍ज़िंदगी के किसी न किसी पहलू से जुड़ी मालूम होती है। बच्चे के साथ खेलने से लेकर अपना आशियाना किसी कारण खो देने का दर्द, जीवन की हरेक साँस का कर्ज़ चुकाते आदमी की पीड़ा बयाँ करती कुछ नज़्में।

मैंने अपना मकान बेच दिया
इक ज़रा से सुकून की ख़ातिर
अपना सारा जहान बेच दिया


ग़म के सेहरा में छोड़ देती है
सुख की एक बूँद भी नहीं मिलती
‍ज़िंदगी यूँ निचोड़ देती है

आज तक आपने तितलियों को फूलों और कलियों के ऊपर मँडराते देखा होगा। फूलों का रस चूसने आई हैं या अठखेलियाँ कर रही हैं यहाँ तक तो जरूर इस पर विचार किया होगा लेकिन अज़ीज़ अंसारी का इसी चीज़ को देखने का नजरिया देखिए -

‍कलियाँ जब भी उदास होती हैं
उनकी अफ़सुरदगी मिटाने को
तितलियाँ सदा आसपास होती हैं

हर जगह सर पटकती रहती है
मेरे मन की उदास बगिया में
एक तितली भटकती रहती है

आज समाज में व्याप्त बुराइयों की हद देखिए। जबकि आदमी आदमी को ज़िंदा जलाने से भी गुरेज नहीं करता। माँ की कोख पर भी तरस नहीं खाता। जहाँ उसके अधमपन की कोई हद ही नहीं होती। जहाँ उसे आदमी कहने के पहले भी कई बार सोचना पड़े।

जहन्नुम बहुत बुरी जगह है लेकिन ये दुनिया उससे भी बुरी है जहन्नुम आदमी को जला सकता है लेकिन उसकी आँखों के सामने उसका घर नहीं जलाता! लेकिन ये दुनिया वाले तो आदमी की आँखों के सामने उसका घर जला डालते हैं। इसके लिए चंद पंक्तियाँ

बढ़ गया ये जहाँ जहन्नुम से
सामने मेरे घर जले मेरा
ये तवक्को़ कहाँ जहन्नुम से

दिखावे को ‍दुनिया सामने आपके भली बनती है। आपके बारे में अच्‍छी-अच्छी बातें करती है लेकिन उसके पीछे छुपा दर्द बयाँ करते दो अशआर।

बाल बिखरे हैं चश्म पुरनम है
खुश है दुनिया तबादले से मेरे
बस वही एक पैक़रेग़म है

मैं जो हूँ तो भलाइयाँ मेरी
न रहूँगा तो देख लेना तुम
सब के मुँह पर बुराइयाँ मेरी

एक ही नज़्म में दो बातों की खूबियाँ देखिए। यह नज़्म दो जहाँ पर कटाक्ष करती है, वहीं किसी की तारीफ भी करती है। दोस्तों और रिश्तेदार आमतौर पर परिस्थितिवश आदमी से जुड़ते और अलग होते रहते हैं और दूसरा महत्व बताया किताबों का। कहते हैं पुस्तकों से जिसकी मित्रता होती है उसे और किसी दोस्त की जरूरत नहीं होती।

दोस्तों का न रिश्तेदारों का
इस दिखावे के दौर में मुझको
आसरा है फ़क़त किताबों का


शहरों की रौनक देखकर जो लोग गाँव-कस्बों से इन नगरों, महानगरों का रुख करते हैं। या किसी मजबूरी के चलते पलायन कर जाते हैं। शायद वो नहीं जानते कि वे अमृत छोड़कर ज़हर के घूँट पी रहे हैं -

चोट खाते हैं ज़हर पीते हैं
छोड़कर गाँव की फिज़ा जो लोग
शहर की बस्तियों में जीते हैं


'तितलियाँ आसपास' की इन नज़्मों को मैंने पिछले 1 वर्ष में लगभग 50 बार तो पढ़ ‍ही लिया होगा। समय गुज़रता जा रहा है और रह-रहकर मुझे इस पुस्तक के किसी न किसी नज़्‍म के कुछ हर्फ़ याद आ ही जाते हैं और फिर पुस्तक उठाकर उस नज़्म को पूरा पढ़ता हूँ तो लगता है मानो यह (तितलियाँ आसपास) पुस्तक मा‍त्र नहीं एक व्यक्ति के या यूँ कहें प्रत्येक व्यक्ति की ज़िंदगी के खट्‍टे-मीठे अनुभव की दासताँ है।

देश का भविष्य यहाँ के बच्चे हैं। लेकिन उनका बचपन भी आज किन परिस्थितियों में गुजर रहा है। उस पर चिंता व्यक्त की है शायर ने। आज जब वर्तमान में बच्चा इन विषम परिस्थितियों से निकलेगा तो युवावस्था में उसकी क्या मानसिकता होगी। किसी को इसकी फिक्र नहीं है -

बच्चा खो जाए ग़म तो होता है
आज बच्चे का खो गया बचपन
इस बड़े ग़म में आज कौन रोता है

जो मिले उसके संग होती है
ज़िंदगानी अज़ीज़ बच्चों की
जैसे पत्नी का रंग होती है

बच्चा स्कूल रोज़ जाता है
बस्ता दिल से लगा के रखता था
आजकल पीठ पर उठाता है

जीवन के लगभग 68 बसंत देख चुके अज़ीज़ अंसारी जी को अल्ला-त-आला अच्छे स्वास्थ्य के साथ लंबी उम्र बख्शे। यही इल्तजा है और उनकी दिल को छू लेने वाली शायरी इसी रूप में हमारे सामने आती रहे।

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