शनिवार, 8 जनवरी 2011

भागवत १६१

जब तृणावर्त का वध किया श्रीकृष्ण ने
पं. विजयशंकर मेहता
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि श्रीकृष्ण ने पूतना और उत्कच का खेल ही खेल ही वध कर दिया। लेकिन श्रीकृष्ण पर जो विपत्तियां या बलाएं आ रही थीं वे अभी और आने वाली थीं। स्वयं श्रीकृष्ण भी उनका इंतजार कर रहे थे। एक दिन की बात है यशोदाजी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलार रही थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गए। वे उनका भार न सह सकीं। उन्होंने भार से पीडि़त होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया।

तृणावर्त नाम का एक दैत्य था। वह कंस का निजी सेवक था। कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। यशोदा ने जब यह देखा तो वह बेसुध हो गई। इधर तृणावर्त बवंडर रूप से जब भगवान श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शांत हो गया। वह अधिक चल न सका।
तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। भगवान ने इतने जोर से उसका गला पकड़ा कि वह असुर वहीं ढेर हो गया। उसकी आंखें बाहर निकल आईं। बोलती बंद हो गयी। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह व्रज में गिर पड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण उसके वक्ष:स्थल पर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियां विस्मित हो गईं। उन्होंने झटपट वहां जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया।

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