गुरुवार, 13 जनवरी 2011

कथासागर

इंसानियत का कारखाना
एक बार एक सज्जन महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के पास आए। उन्होंने कुछ देर तक उनसे इधर-उधर की चर्चा की फिर बोले, 'आज विज्ञान ने एक से बढ़कर एक सुख-सुविधाओं के साधन बनाने में सफलता पा ली है। अब पलक झपकते ही दूरियां तय हो जाती हैं, कुछ ही क्षणों में सुविधाओं की सारी चीजें हमारे पास आ जाती हैं, मगर फिर भी जाने क्या बात है कि समाज में अशांति, असंतोष, कलह व बुराई पहले की अपेक्षा ज्यादा पनप रही है। आखिर इसका क्या कारण है? सुविधाएं अधिक होने पर तो इंसान को प्रसन्न होना चाहिए। उसके मन को शांति व संतोष भी मिलना चाहिए।' उस सज्जन की बातें सुनकर आइंस्टीन बोले, 'मित्र, हमने शरीर को सुख पहुंचाने वाले तरह-तरह के साधनों को खोजने में अवश्य सफलता प्राप्त कर ली है किंतु जीवन में असली सुख-शांति मन-मस्तिष्क को आंतरिक आनंद प्राप्त होने से मिलती है। क्या हमने इंसानियत का ऐसा कोई कारखाना लगाया है, जिससे लोगों के अंदर मर रही संवेदनाओं को जीवित किया जा सके, उनके अंदर त्याग, ममता, करुणा, प्रेम आदि को उत्पन्न किया जा सके? क्या हमने ऐसा कोई कारखाना बनाया है जहां पर मन-मस्तिष्क को आनंद देने वाले साधनों का निर्माण किया जाता हो?'
आइंस्टीन की बात सुनकर वह सज्जन चकराए। उन्हें लगा शायद आइंस्टीन ऐसा कोई कारखाना लगाने के बारे में सोच रहे हों, तभी ऐसी बात कर रहे हैं। लेकिन उन्हें लगा कि यह तो मुमकिन नहीं है। इसलिए कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपनी जिज्ञासा रखी, 'भला इंसानियत के कारखाने का निर्माण कैसे संभव है? इंसानी भावनाएं तो इंसान के अंदर पनपती हैं मशीन के अंदर नहीं।' उनकी बात सुनकर आइंस्टीन ने मुस्कराते हुए कहा, 'जनाब, बिल्कुल ठीक कहा आपने। अशांति-असंतोष दूर करने के लिए हमें लोगों में इंसानियत की भावना पैदा करने की ओर ध्यान देना होगा। भौतिक साधनों से सुख-शांति कदापि नहीं मिल सकती।' वह सज्जन आइंस्टीन की बात से सहमत हो गए।

विचित्र आशीर्वाद
राजा संत के पास गया। संत ने राजा को आशीर्वाद दिया, 'सिपाही बन जाओ।' यह बात राजा को अच्छी नहीं लगी। दूसरे दिन राजा ने अपने राज्य के सबसे बड़े विद्वान को संत के पास भेजा। संत ने कहा, 'अज्ञानी बन जाओ।' विद्वान भी नाराज होकर लौट गए। इसी तरह जब नगर सेठ आया तो संत ने आशीर्वाद दिया, 'सेवक बन जाओ।' सेठ भी रुष्ट होकर वापस आ गया।
संत के आशीर्वाद की चर्चा राज दरबार में हुई। लोग कहने लगे कि यह संत नहीं, धूर्त है, तभी अनाप-शनाप आशीर्वाद देता है। किसी ने कहा कि संत जरूर मानसिक संतुलन खो चुके हैं। एक दिन राजा ने अपने सैनिक भेजकर संत को राजदरबार में बुलाया। राजा ने संत से कहा, 'आप ने आशीर्वाद देने के बहाने सभी लोगों का अपमान किया है, इसलिए आपको दंड दिया जाएगा।'
यह सुनकर संत हंस पड़े। राजा ने जब इसका कारण पूछा तो संत ने कहा, 'लगता है इस राज दरबार में सब मूर्ख हैं। मैंने जो कहा है, ठीक कहा है। मैंने राजा को कहा कि सिपाही बन जाओ क्योंकि राजा का कर्म है राज्य की सुरक्षा करना। सिपाही का काम भी रक्षा करना होता है। विद्वान को अज्ञानी बन जाने को कहा। इसका तात्पर्य यह है कि विद्वान ज्ञानी होता है। कहीं उसे अपने ज्ञान का अभिमान न हो जाए, इसीलिए मैंने उसे अज्ञानी बनने को कहा था। सेठ का कर्त्तव्य होता है, अपने धन से गरीबों की सेवा करना। इसीलिए मैंने उसे सेवक बनने का आशीर्वाद दिया।' यह सुनकर राजा ने संत से क्षमा मांगी।

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