सोमवार, 24 जनवरी 2011

सन्डे की पाठशाला

नैसर्गिकता से खिलवाड़ नहीं
सुंदरपुर शहर में एक धनी सेठ रहते थे, जिनका नाम रूपचंद था। नाम के अनुरूप ही रूपचंद काफी खूबसूरत थे। उन्होंने दो विवाह किए थे। दो पत्नियों में से एक उनकी हमउम्र थीं जिनका नाम रूपा था। दूसरी पत्नी चंदा उनसे दस साल छोटी थी। दोनों ही पत्नियां पति को बहुत मानती थीं।
सेठ रूपचंद भी पूरी कोशिश करते थे कि व्यस्त कामकाज के बावजूद दोनों पत्नियों को पूरा समय दे सकें। वे उन पर पर्याप्त स्नेह रखते थे। उधर दोनों पत्नियों का भी पूरा जोर इस बात पर होता कि सेठ का खानपान और पहनावा आदि उनकी मर्जी के मुताबिक हो। सेठ का यश चारों ओर फैला हुआ था। उनका सभी बहुत सम्मान भी करते। एक दिन की बात है, कहीं बाहर निकलने से पहले सेठ अपने बालों को संवार रहे थे। अचानक उनकी नजर अपने सफेद बालों पर पड़ी। उस समय उनके साथ चंदा भी थी।
सेठ ने हंसकर कहा कि वह तो अब बूढ़ा हो चला है। छोटी पत्नी चंदा को भी चिंता होने लगी कि उसका पति बूढ़ा हो रहा है। पति के सामने वह बहुत छोटी दिखेगी। काफी सोच-विचार के बाद चंदा ने इसका उपाय खोजा। रात में जब पति सो रहा था तो चंदा ने सेठ के सिर से सफेद बाल चुन-चुनकर निकालने शुरू कर दिए ताकि वह जवान दिखाई दे। अगली रात दूसरी पत्नी रूपा ने जब पति के सिर से सफेद बाल गायब देखे तो उसे चिंता होने लगी कि वह कहीं पति से पहले वृद्घ न दिखने लगे। बस उसने पति के सिर से सारे काले बाल उखाड़ दिए। अगले दिन सेठ रूपचंद ने जब अपने सिर के सारे बाल गायब देखे तो उसकी हैरानी और दुख का ठिकाना नहीं रहा।

सबक
अगर हम अपने आस-पास की किसी वस्तु या इंसान को पूरी तरह अपने हिसाब से ढालने लगेंगे तो उस की नैसर्गिक सुंदरता को नष्ट ही करेंगे।


अपने ही भीतर खुशी की तलाश
नीलनगर के उस अस्पताल में एक साथ रहते-रहते मोहन और यश के बीच नजदीकी दोस्ती हो गई थी। हालांकि दोनों के बिस्तर कमरे के दो छोरों पर मौजूद थे लेकिन फिर भी दोनों को एक दूसरे से बातें करना बहुत भाता था। लेकिन इधर कुछ दिनों से पता नहीं क्यों मोहन के मन में यश को लेकर एक तरह की ईष्र्या घर कर गई थी।
इसके पीछे शायद वह खिड़की थी जो यश के बिस्तर के ठीक ऊपर थी। अस्पताल के घुटन भरे कमरे में बाहर की रोशनी वहीं से आती थी। अक्सर जब नर्स यश को दवा लेने के लिए उठाकर बिठाती तो वह अपने साथी मरीजों का मन बहलाने के लिए उन्हें खिड़की के बाहर दिखने वाले नजारों का आंखों देखा हाल सुनाता।
कमरे की एक रस जिंदगी से ऊब चुके मरीजों में वह खुशनुमा एहसास भरता। इन सब बातों के बीच मोहन के मन में कहीं न कहीं यह शैतानी खयाल सर उठा रहा था कि बाहर की दुनिया देखने का मजा अकेले यश क्यों लेता है?
एक रात की बात है यश को खांसी का भीषण दौरा पड़ा। कमरे में केवल मोहन जाग रहा था वो चाहता तो नर्स को बुला सकता था, लेकिन वह चुप रहा। नर्स सुबह दवा देने आई और उसने पाया कि यश की मौत हो चुकी है। शोकाकुल माहौल में यश का शव वहां से हटाया गया।
मौका मिलते ही मोहन ने नर्स से कहा कि क्या उसे यश के खाली बिस्तर पर भेजा जा सकता है। नर्स ने भी कोई आपत्ति नहीं जताई। लेकिन यह क्या? यह देखकर मोहन के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि खिड़की के ठीक बाहर एक ऊंची दीवार के सिवा कुछ नहीं था। उसे यश की याद आई और रुलाई फूट पड़ी।

संदेश
खुशी हमेशा हमारे भीतर होती है उसे कहीं बाहर तलाशने का कोई मतलब नहीं है। कई बार दूसरों को खुशी के लिए कुछ करने से जो खुशी मिलती है उससे बड़ी खुशी दूसरी नहीं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें