शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

क्यों जरूरी है जीवन में मौन?

मौन- सुनने में बड़ा भारी सा लगने वाला शब्द पर वास्तव में बड़ा ही अचूक शस्त्र। शस्त्र इसलिए की इससे बड़े से बड़ा दुश्मन भी नतमस्तक हो जाता है।
मौन एक तरह का व्रत है साधना है। मौन-व्रत का सीधा सा मतलब होता है- अपनी जुबान को लगाम देना अर्थात अपने मन को नियंत्रित करते हुए चुप रहना।
मौन का एक अर्थ यह भी होता है अपनी भाषा शैली को ऐसा बनाएं जो दूसरों को उचित लगे।
पर क्या मौन इतना ही जरूरी है?
क्या मौन के बिना जीवन नहीं चल सकता?
मौन की आदत डालने से व्यक्ति कम बोलता है और जब वह कम बोलता है तो निश्चित रूप से सोच समझकर ही बोलता है। इस तरह से वह अपनी जुबान को अपने वश में कर सकता है।
यह बात तो प्रामाणित भी हो चुकी है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन मौन रखने से कई आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। फिर भी यदि मौन पूरे दिन नहीं रख सकते तो आधे दिन का जरूर रखना चाहिए।
बोलने से व्यक्ति के शरीर की शक्ति खत्म होती है। जो जितना ज्यादा बोलता है उसका एनर्जी लेबल, जिसे आन्तरिक शक्ति भी कहते हैं, का नाश होता है। यह आन्तरिक शक्ति शरीर में बची रहे इसलिए भी मौन व्रत जरूरी है।

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