शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

भागवत १९५ १९६: जहां प्रेम होता है वहां अभिमान नहीं होता

जिन्दगी का असली आनन्द प्रेम है। प्रेम का कोई स्वरूप नहीं है। जहां प्रेम होता है वहां अभिमान नहीं होता है। जहां अभिमान होता है वहां प्रेम हो ही नहीं सकता है क्योंकि परमात्मा से मिलन के लिए आपको अपने चित्त को सारे आवरणों से मुक्त करना होगा।
गोपियां कृष्णमय, भगवानमय हो गईं। सभी हाथों से हाथ मिलाकर नाचने लगीं। यह तो ब्रह्म से जीव का मिलन हुआ है। रास में साहित्य, संगीत और नृत्य का समन्वय होता है। इस लीला में काम का अंश मात्र भी नहीं।श्रीकृष्ण और ब्रह्मा-रास लीला को निहारते -निहारते ब्रह्माजी सोचने लगे कि कृष्ण और गोपियां तो निष्काम हैं तो फिर भी देहाभिमान भूलकर इस प्रकार पराई नारी से लीला करना शास्त्र मर्यादा का भंग ही है। कृष्णावतार धर्म मर्यादा के पालन के लिए है, स्वेच्छाचार करने के लिए नहीं। ब्रह्माजी रजोगुण के प्रतिष्ठाता देव हैं। उनकी आंखों में रजोगुण है, वे हर कहीं वैसा ही देखते हैं। ब्रह्मा सशंंकित हुए। कृष्णजी सोच रहे हैं कि ब्रह्माजी को धर्म मैंने ही तो सिखाया है और आज वे मुझे ही सिखाने जा रहे हैं। ब्रह्मा यह नहीं जानते कि यह रासलीला धर्म नहीं धर्म का फल है। प्रभु ने एक और खेल रचा। सभी गोपियों को अपना स्वरूप दे दिया। अब तो सब ओर कृष्ण ही दिखाई दे रहे हैं। ब्रह्माजी ने मान लिया कि यह स्त्री पुरूष का मिलन नहीं है ये कृष्ण ही गोपी रूप हो गए हैं। ब्रह्माजी ने कृष्णजी को प्रणाम किया।
रासलीला नारद-नारदी-नारदजी अफसोस करने लगे कि वे पुरूष रूप में आने के बदले स्त्री रूप में आए होते तो उन्हें रास रस की प्राप्ति हो जाती । नारदजी क्या जानें कि पुरूष तो एक पुरूषोत्तम और सब ब्रजनारी हैं। इतने में राधाजी ने नारदजी को दुखी को देखा। वृंदावन की ईश्वरी राधिका यह नहीं चाहती थी कि वृंदावन के किसी भी अतिथि को किसी भी प्रकार का कष्ट या दु:ख हो। उन्होंने नारदजी से कारण पूछा। नारजी बोले-मुझे श्रीकृष्ण के साथ रास खेलकर गोपियों-सा आनन्द पाना है। तो राधा बोलीं कि आप राधा कुंड में स्नान करेंगे तो रासलीला में प्रवेश मिलेगा। नारजी राधा कुण्ड में स्नान करते हैं तो वे नारी बन गए। उन्होंने सोच लिया था कि यदि परमात्मा मिलते हों तो नारी बनने में क्या आपत्ति है। आज तक पुरूषत्व के अभिमान से ही तो मुझे प्रभु से इतना दूर रखा है। आज तक मैं इसी अभिमान में डूबा रहा कि मैं पुरूष हूं बड़ा कीर्तनकार हूं। गोपियों ने अपना अस्तित्व छोड़ दिया और नारदजी ने अपना पुरूषत्व छोड़ दिया। ऐसा देहभान छोड़े बिना जीव ईश्वर के निकट नहीं जा सकता है।


सुन्दरता के घमंड में किसी का मजाक ना बनाए
शरीर और आत्मा दोनों ही परमात्मा की ही देन है। कई बार हम चित्त पर इतने आवरणों को धारण कर लेते हैं कि हमें अपनी नश्वर काया पर अभिमान होने लगता है। कई बार हम जाने अनजाने घमंड में किसी के दिल को चुभने वाली बात बोल जाते हैं जो उसके दुख का कारण बन जाती है।
एक बार नन्दबाबा आदि गोपों ने शिवरात्रि के अवसर पर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्द से भरकर बैलों से जुती हुई गाडिय़ों पर सवार होकर अम्बिका वन की यात्रा की। वहां उन लोगों ने सरस्वती नदी में स्नान किया। उस अम्बिका वन में एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजी को पकड़ लिया। अजगर के पकड़ लेने पर नन्दरायजी चिल्लाने लगे-बेटा कष्ण! कृष्ण! दौड़ो-दौड़ो। देखा बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरण में हूं। जल्दी मुझे इस संकट से बचाओ। नन्दबाबा का चिल्लाना सुनकर सब के सब गोप एकाएक उठा खड़े हुए और उन्हें अजगर के मुंह में देखकर घबरा गए।

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