शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

जो दिखता है, वह झूठ भी हो सकता है

जीवन में अक्सर ऐसे अवसर आते हैं जब बिना सच्चाई जानें ही किसी एक निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं जबकि सच्चाई कुछ और ही होती है। जो हमें दिखता है हम उसी पर यकीन कर लेते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि जो दिख रहा है उसमें कितनी सच्चाई है पहले इस पर विचार किया जाए। तभी हम सही सही निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं।
दो मित्र व्यापार करने के लिए रेगिस्तान के रास्ते से दूसरे स्थान पर जा रहे थे। जब काफी दूर निकल आए तो मालूम हुआ कि रास्त भटक गए हैं। उनके पास जो पानी था वह भी खत्म हो गया। दोनों प्यास के मारे बेहाल हो गए। ढूंढते-ढूंढते उन्हें एक झरना मिल गया और वहीं एक बर्तन भी। दोनों मित्र बहुत खुश हुए। उन्होंने जैस ही उस बर्तन में झरने का जल भरा और पिया तो वह बहुत कड़वा निकला। पीने लायक नहीं था वह पानी।
दोनों उस झरने को छोड़कर दूसरे झरने की तलाश में निकले। उस पात्र को साथ में ले लिया। जब दूसरा झरना मिला तो वहां भी उसी बर्तन से पानी भरा और पिया तो वह भी कड़वा था। उनकी हालत और खराब हो गई। कंठ सूख रहा था। आगे फिर एक झरना मिला लेकिन वहां का पानी भी कड़वा था।
उस झरने के पास एक फकीर बैठे थे। उन्होंने उस फकीर से पूछा कि क्या यहां के सारे झरनों का पानी कड़वा है। उस फकीर ने उन्हें देखा और कहा कि यहां के सभी झरनों का पानी पीने लायक है। क्योंकि में तो इन्हीं झरनों पर जी रहा हूं। फकीर ने जब उनके हाथ में उस बर्तन को देखा तो वह समझ गया कि इस बर्तन में ही कुछ है जिससे झरने का पानी कड़वा लग रहा है। उन दोनों मित्रों से कहा कि तुम झरने से सीधे हाथों में लेकर पानी पीयो। उन्होंने बिना पात्र के ही सीधा पानी पिया।
एकदम मीठा पानी था। तो तय हुआ कि उन झरनों में तो पानी अच्छा था लेकिन वह बर्तन ही पात्र गंदा था।

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