मंगलवार, 1 मार्च 2011

भागवत २०३: अक्रूर के मन में संशय था इसलिए कृष्ण ने....

अक्रूर भक्त थे लेकिन उनके मन में संशय था। वे भगवान के विराट स्वरूप की तलाश में थे, सो बाल कृष्ण को भगवान मानने में मन थोड़ा हिचक रहा था। वे बार-बार कृष्ण से बालकोचिन व्यवहार ही करते, बात-बात पर समझाते। कृष्ण ने अक्रूरजी की मनोदशा को ताड़ लिया। अक्रूरजी का संशय दूर करने के लिए उन्होंने यमुना के किनारे भी एक छोटी सी लीला की।
अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे। उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं। अब उनके मन में यह शंका हुई कि वसुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूं, अब वे यहां जल में कैसे आ गए? जब यहां हैं तो शायद रथ पर नहीं होंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा। वे उस रथ पर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगाई। परन्तु फिर उन्होंने वहां भी देखा कि साक्षात् अनन्त देव श्री शेष नाग जी पर विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।
भगवान् की यह झांकी निरखकर अक्रूरजी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गई। सारा शरीर हर्शावेश से पुलकित हो गया। प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आंसू से भर गए। अब अकू्ररजी ने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद हो भगवान् की स्तुति करने लगे।
अब सारी शंंका, सारा संशय दूर हो गया। भगवान की लीला देख ली। बालकों के रूप में साक्षात् नारायण के दर्शन हो गए। बस भगवान की शरण ले ली। भगवान ने भी अक्रूरजी को भक्ति का प्रसाद दिया। अक्रूरजी के साथ श्रीकृष्ण जब मथुरा नगरी पहुंचे, तो नगरवासी भी उनके दर्शन कर कृत-कृत्य हो गए।
भगवान श्रीकृष्ण ने विनीतभाव से खड़े अक्रूरजी का हाथ अपने हाथ में लेकर मुसकाते हुए कहा-चाचाजी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिए और अपने घर जाइये। हम लोग पहले यहां उतरकर फिर नगर देखने के लिए आएंगे।
अक्रूरजी ने कहा-प्रभो! आप दोनों के बिना मैं मथुरा में नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूं। भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोडि़ए। श्री भगवान् ने कहा-चाचाजी! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊंगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृत्-स्वजनों का प्रिय करूंगा।
(www.bhaskar.com)

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