सोमवार, 14 मार्च 2011

सिर्फ हरी मिर्च पर गुजारा

यहाँ एक रेस्टोरेंट में हलवाई का कार्य करने वाले महावीर माली हर दिन जब तक आधा किलो हरी मिर्च नहीं खा लेता तब तक उसका पेट नहीं भरता। यह सिलसिला 9 वर्षों से जारी है। इतने ही समय से यह शख्स अन्न का भी त्याग कर चुका है। भोजन के रूप में केवल फरियाली खिचड़ी ली जाती है।
मूलतः ग्राम दैहिक जिला कोटा राजस्थान के रहने वाले श्रीमाली का हरी मिर्च खाने का अंदाज निराला है। गाजर की तरह देखते ही देखते आधा किलो मिर्च चटकर दी जाती है।श्रीमाली का कहना है कि वे 14 वर्ष तक इसी तरह हरी मिर्च खाएँगे। इसके साथ ही खाने में वे 250 ग्राम आलू और साबूदाना की खिचड़ी लेते हैं। जब उनसे आधा किलो हरी मिर्च खाने के बाद उसके दुष्परिणामों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि मुझे मिर्ची खाने में कोई परेशानी नहीं होती है।
उसने कहा कि जिस तरह साधु-संन्यासियों द्वारा कोई भी मन्नत रखी जाती है, ऐसी मेरी कोई कामना नहीं है। ये तो बस मेरी इच्छा से हो गया, जिसे अब तक निभाते आ रहा हूँ। मैं जब तक आधा किलो मिर्ची न खा लूँ, तब तक मेरा पेट ही नहीं भरता। श्रीमाली अपने दो बच्चों, पत्नी, माता-पिता और भाई-बहनों के साथ यहाँ निवासरत हैं।

65 वर्ष से बगैर भोजन जिंदा हैं
अंबा माताजी के पास गब्बर पर्वतमाला की गुफा में रह रहे चुनरी वाले माताजी (पुरुष साधक)पिछले 65 साल से बिना कुछ खाए-पिए रहने तथा दैनिक क्रियाओं को भी योग की शक्ति से रोक देने की वजह से चिकित्सा विज्ञान के लिए एक चुनौती बन गए हैं। मुंबई तथा अहमदाबाद के चिकित्सकों ने सीसीटीवी के बीच उनकी जाँच भी की, लेकिन उनके इस रहस्य पर से पर्दा उठाने में वे भी नाकाम रहे। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी इसमें रुचि दिखाई है, यदि माताजी के ऊर्जा का स्रोत का पता चल जाता है तो शायद यह अंतरिक्ष यात्रियों एवं सेना के जवानों के लिए कारगर साबित होगा।
गाँधीनगर के चराड़ा गाँव निवासी प्रहलाद भाई जानी कक्षा तीन तक पढे़ लिखे हैं। ग्यारह वर्ष की उम्र में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, और उन्होंने घर त्याग कर जंगलों में रहना शुरू कर दिया। जानी का दावा है कि दैवीय कृपा तथा योग साधना के बल पर वे करीब 65 वर्ष से बिना कुछ खाए पिए-जिंदा हैं। इतना ही नहीं मल-मूत्र त्यागने जैसी दैनिक क्रियाओं को योग के जरिए उन्होंने रोक रखा है। स्टर्लिंग अस्पताल के न्यूरोफिजिशियन डॉ. सुधीर शाह बताते हैं कि जानी के ब्लैडर में मूत्र बनता है, लेकिन कहाँ गायब हो जाता है इसका पता करने में विज्ञान भी अभी तक विफल ही रहा है। रक्षा मंत्रालय के डॉ. सेल्वा मूर्ति की अगुआई में 15 चिकित्सकों की टीम ने लगातार दस दिन तक उनका वीडियो कैमरों के बीच चिकित्सकीय परीक्षण भी किया, लेकिन उनके समक्ष आज भी चुनरी वाले माताजी का यह केस एक यक्ष प्रश्न ही बना हुआ है। डॉ. शाह बताते हैं कि पहली बार माताजी का मुंबई के जे.जे. अस्पताल में परीक्षण किया गया था, लेकिन इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ सका।
वे बताते हैं कि यह माताजी कभी बीमार नहीं हुए, उनकी शारीरिक क्रियाएँ सभी सामान्य रूप से क्रियाशील हैं। चिकित्सक समय-समय पर उनका परीक्षण भी करते हैं, लेकिन ब्लड प्रेशर, हार्ट बीट आदि सभी सामान्य ही पाई गई हैं। चिकित्सकीय परीक्षण के दौरान डिस्कवरी चैनल ने भी उन पर एक लघु फिल्म तैयार की है। इसके अलावा डॉ. शाह ने भी माताजी के तथ्यों को केस स्टडी के रूप में अपनी वेबसाइट पर डालकर दुनिया के चिकित्सकों को इस पहेली को सुलझाने की चुनौती दी है, लेकिन फिलहाल तक कोई भी इस पहेली को नहीं सुलझा पाया है।
अहमदाबाद में व्याख्यान देने आए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अब इस केस को हाथ में लिया है वे इसका फिर से वैज्ञानिक परीक्षण कराना चाहते हैं। यदि जानी के ऊर्जा स्रोत का पता चल जाता है तो चिकित्सकों का दावा है कि इससे अंतरीक्ष यात्रियों तथा सेना के जवानों की खाद्य समस्या हल हो सकती है साथ ही अकाल एवं भुखमरी जैसी समस्या को भी समाप्त किया जा सकता है।
वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. उर्मन ध्रूव बताते हैं कि जानी का शरीर पूरी तरह स्वस्थ है, चिकित्सा विज्ञान के समक्ष वे अब तक अबूझ पहेली बने हुए हैं। उनकी एक भी कोशिका में चर्बी का कोई अंश नहीं है। इसे दैवीय कृपा नहीं कहा जा सकता, लेकिन उनके शरीर में ऊर्जा का कोई अतिरिक्त स्रोत जरूर है।

विवाह के लिए खरीदा जाता है कन्या को
बुक्सा जनजाति की अजीब परंपरा
उत्तराखंड के नैनीताल, पौड़ी गढ़वाल और देहरादून की ग्रामीण बस्तियों में निवास करने वाली बुक्सा जनजाति में विवाह करने के लिए आज भी कन्या को खरीदा जाता है। इसका कारण यह है कि इस जनजाति में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या काफी कम है।
बुक्सा जनजाति की कन्या विवाह से पहले परिवार के आर्थिक उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है, लेकिन विवाह के बाद कन्या पक्ष कन्या के सहयोग से मिलने वाले लाभ से वंचित हो जाता है जिसकी भरपाई के रूप में कन्या का पिता कन्या का मूल्य पाने का अधिकारी माना जाता है। यह राशि विवाह से पहले वर पक्ष कन्या पक्ष को देता है, जिसे 'मालगति' कहा जाता है।
इस जनजाति में पुरुष का विवाह तभी संभव है, जब उसके पास खेती के लिए इतनी भूमि हो कि वह अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि इस जनजाति में विवाह अपेक्षाकृत अधिक उम्र में किए जाते हैं। कन्या के विवाह की उम्र अमूमन 18-20 और वर की उम्र 20-24 वर्ष होती है।
अंतरजातीय और बहिर्गोत्रीय विवाह की प्रथा इस आदिवासी समाज में प्रचलित है। इनमें रक्त संबंधियों के बीच विवाह नहीं होता और एक ही गाँव में भी विवाह निषिद्ध है। इनमें दहेज प्रथा भी प्रचलित है, जो साधारणतः वस्त्राभूषण आदि के रूप में दिया जाता है।
बुक्सा जनजाति में विवाह विच्छेद की सुविधा या छूट है, लेकिन विवाह विच्छेद नहीं के बराबर है। इसकी कई वजहें हैं। क्रय विवाह में जिस कन्या को धन देकर खरीदा जाता है, उसे छोड़ने का मतलब प्रत्यक्ष आर्थिक क्षति है। इसलिए कोई भी पति आसानी से अपनी विवाहिता को तलाक नहीं दे सकता।
इस जनजाति में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन भी नहीं है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि इस समाज में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से काफी अधिक है। इसलिए विवाह विच्छेद के बाद पुरुष का विवाह कठिन हो जाता है। इनमें विधवा का विवाह तो आसानी से हो जाता है, लेकिन विधुर का विवाह सरलता से नहीं हो पाता है। पत्नी के संबंध तोड़ने पर पूर्व पति उसके पिता या नए पति से क्षतिपूर्ति की माँग कर सकता है और यदि पत्नी पति को छोड़े दे तो उसके पिता को 'मालगति' वापस करनी पड़ती है।
सन् 1991 की जनगणना के अनुसार बुक्सा जनजाति की कुल आबादी 42027 है और इसका 60 प्रतिशत भाग नैनीताल जिले के विभिन्न विकासखंडों में निवास करता है। जिन क्षेत्रों में यह जनजाति बसी है, उसे 'भोक्सार' कहते हैं। इनकी भाषा हिन्दी और कुमाउंनी का सम्मिश्रण है, लेकिन जो लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं। वे देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करते हैं।बुक्सा जनजाति की उत्पत्ति के विषय में ब्रिटिश इतिहासकार विलियम क्रुक ने बताया है कि यह अपने को राजपूतों का वंशज मानती है, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि इस जनजाति के लोग दक्षिण से आए हैं जबकि कुछ का मत है कि ये उज्जैन में धारानगरी के मूल निवासी थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि देश पर मुगलों के आक्रमण के समय चितौड़ की राजपूत जाति की अनेक स्त्रियाँ निम्न वर्ग के अनुचरों के साथ भाग आईं और उन्होंने तराई क्षेत्र में शरण ली। बुक्सा जनजाति के लोग उन्हीं के वंशज हैं। शायद इसीलिए इस जनजाति की पारिवारिक योजना में स्त्रियों की प्रधानता है और पुरुषों को अब भी घर के बाहर भोजन करना पड़ता है।
बुक्सा जनजाति में पिता के नाम पर वंश चलता है। परिवार का ज्येष्ठ पुरुष मुखिया होता है और असीमित अधिकारों के साथ एक निरंकुश शासक की तरह काम करता है। उसके आदेश का परिवार के सभी लोगों को पालन करना पड़ता है। परिवार की समस्त आमदनी उसी को सौंपी जाती है, जिसे वह उचित समय पर व्यय करता है। इस आदिवासी समाज में संयुक्त और वैयक्तिक दोनों प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। परिवार के सभी सदस्य खेती करते हैं और खेती पर सभी का अधिकार माना जाता है।
बदलते दौर में अब बुक्सा जनजाति में भी संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवार लेते जा रहे हैं। हालाँकि इन परिवारों में पुरुषों की प्रधानता है, लेकिन स्त्रियाँ भी कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखती है। परिवार में उनकी बात अधिक मानी जाती है। अशिक्षित होते हुए इस जनजाति की महिलाओं में पर्दा प्रथा बिल्कुल नहीं है। बुक्सा स्त्रियाँ पुरुषों की न तो दासियाँ हैं और न ही स्वामिनी बल्कि वह बराबरी का स्थान हासिल किए हुए हैं।
इस जनजाति में रिश्तेदारी संबंधी प्रथाओं का भी बड़ा महत्व है। परिवार की पुत्रवधू अपने ससुर और जेठ को न तो देख सकती है, न बात कर सकती है और न ही उनके सामने चारपाई पर बैठ सकती है। जेठ और ससुर से वह सास या ननद के माध्यम से अपनी बात कह सकती है। इन लोगों में भी जीजा-साली और देवर-भाभी के बीच परिहास प्रचलित है। इसलिए इस जनजाति में देवर-भाभी के बीच पति-पत्नी संबंध संभावित माना गया है, लेकिन देवर-भाभी और जीजा-साली में विवाह से पहले यौन संबंध अवैध माना जाता है।
शादी, तलाक और आपसी झगड़े बिरादरी की पंचायत तय करती है। दस-बीस गाँवों के बीच इस प्रकार की एक बिरादरी पंचायत होती है, लेकिन अब इस तरह की पंचायत का महत्व कम होने लगा है। इनके स्थान पर नैनीताल जिले के तराई क्षेत्र में पंचायती राज और बुक्सा परिषद् की स्थापना की गई है जो महत्वपूर्ण कार्य कर रही है।
बुक्सा जनजाति का धर्म हिन्दू है। उसकी ईश्वर में आस्था है जिसकी पूजा कई देवी-देवताओं के रूप में की जाती है। शंकर, काली माई, दुर्गा, लक्ष्मी, राम और कृष्ण की इस आदिवासी समाज में पूजा की जाती है। होली, दीपावली, दशहरा और जन्माष्टमी उनके मुख्य त्योहार हैं, लेकिन 25 दिसम्बर को ईसाइयों के समान बड़ा दिन भी वह मनाते हैं। इसकी वजह यह है कि बुक्सा जनजाति के लोग बहुत दिनों तक अंग्रेज अधिकारियों के सम्पर्क में रहे थे।
इस जनजाति में कई प्रकार के जादू, टोने और अंधविश्वास भी प्रचलित हैं। इनमें यह धारणा है कि झाड़, फूँक से रोग ठीक हो जाते हैं। वैद्य या चिकित्सक से परामर्श करने से पहले इस जनजाति के लोग रोगी को 'स्थाने', स्थानीय भाषा में 'भंडारे' को दिखाते हैं, जो उसकी नब्ज देखकर तंत्र-मंत्र से झाड़-फूँक करता है। स्थाने के आदेश पर देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मुर्गे या बकरे की भेंट चढ़ाई जाती है।
इस जनजाति के लोग कोई काम बिगड़ने, दुर्घटना होने या रोग होने का कारण भूत-प्रेत की अप्रसन्नता को मानते हैं और उसे खुश करने के लिए मुर्गा, वस्त्रादि निश्चित एकांत स्थान पर रखे जाते हैं। उनका विश्वास है कि प्रेतात्माएँ उसे ग्रहण करने वहाँ जाती हैं। बकरे की बलि चढ़ाकर उसे देवी या आत्मा के प्रसाद के रूप में वितरित और स्वयं ग्रहण किया जाता है। बुक्सा लोग शक्ति के प्रतीक के रूप में पीपल के पेड़ की पूजा करते हैं।
बुक्सा जनजाति के लोगों की अर्थव्यवस्था जंगलों पर आधारित है, लेकिन धीरे-धीरे जंगलों के कटने से अब वे केवल खेती या खेतों में मजदूरी करने के लिए बाध्य हो गए हैं। उनके पास खेती योग्य भूमि की कोई कमी नहीं थी, लेकिन आलस्य, उधार, कर्ज तथा नशे की आदत और अशिक्षित होने के कारण उनकी अधिकतर भूमि पहाड़ियों और पंजाबी शरणार्थियों ने हथिया ली।
बुक्सा चावल और मछली बड़े चाव से खाते हैं और अपने भोजन में दाल, रोटी और सब्जी का प्रचुरता से इस्तेमाल करते हैं। नशीले पदार्थों और द्रव्यों में पुरुष देसी हुक्के, बीडी, सिगरेट, शराब, कच्ची ताड़ी और सुल्फे का प्रयोग अधिक करते हैं।

कुतिया ने बनाया बिल्ली को बेटी
आस्था या अंधविश्वास में अब तक हम आपके समक्ष जितनी भी घटनाएँ लाए उन सबसे यह घटना कुछ अनोखी है। मनुष्य का पशु प्रेम किसी से छुपा नहीं है। लाखों सालों से मनुष्य और पशु एक दूसरे के साथ रहते आए हैं। परंतु यह लगाव कभी-कभी अपनी चरम सीमा तक पह़ँच जाता है और मनुष्य का पशु प्रेम आडंबर लगने लगता है।
सामान्य तौर पर देखा जाता है कि बिल्ली को दिखते ही कुत्ता उसकी जान के पीछे लग जाता है। परंतु 'बिल्लू' नाम की एक कुतिया ने 'नेन्सी' बिल्ली को अपने बच्चे की तरह पाला। इन्दौर के परिवार ने करीब चार सालों से बिल्लू को पाल रखा है। तभी उन्हें अपने पड़ोस में एक नन्ही लावारिस बिल्ली पड़ी मिली जो शक्ल-सूरत में बिल्लू की तरह ही दिखती थी। उसे वे अपने घर तो ले आए पर उन्हें डर था कि बिल्ली को कुतिया से कैसे बचाकर पालें।
परंतु उनका यह डर उनकी कुतिया ने दूर कर दिया। थोड़े ही दिनों में वो नेन्सी बिल्ली को अपने बच्चे की तरह प्यार देने लगी। यहाँ तक की उसके खुद के बच्चे न होने के बावजूद नेन्सी के लिए उमड़े ममत्व की वजह से वह उसे स्तनपान करवाने लगी। डोलेकर परिवार ने जब यह अनूठी घटना पशु चिकित्सक को बताई तो उन्होंने इसे सॉयकोलॉजी प्रभाव बताया।
परंतु यह प्रेम कहानी अधिक समय तक चल न सकी और 10 महिनों के भीतर ही बिल्ली का देहांत हो गया। सब कुछ एक आम घटना की तरह था। परंतु यही से शुरुआत हुई आडंबर की, परिवार के लोगों ने बिल्ली को घर के सदस्य की तरह अंतिम यात्रा निकालकर उसका अंतिम संस्कार किया और वे सारे संस्कार ‍‍किए जो किसी पारिवारिक सदस्य के देहांत पर किए जाते हैं। कहा तो यह भी गया कि बिल्ली की मौत पर बिल्लू कुतिया ने भी खूब आँसू बहाए।
पशु के प्रति दया और प्रेम रखना वाकई एक सराहनीय काम है परंतु प्रेम का यह अजीबोगरीब तरीके का दिखावा करना कहाँ तक जायज है।

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