बुधवार, 16 मार्च 2011

क्यों न करें भगवान विष्णु की पीठ के दर्शन?

ऐसा कहा जाता है कि भगवान के दर्शन मात्र से ही कई जन्मों के पापों का नाश हो जाता है। इसी वजह से भक्तों द्वारा भगवान के दर्शन पाने के लिए कई प्रकार के पूजा-कर्म किए जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर, धार्मिक स्थलों पर देवी-देवताओं के दर्शन के लिए जाते हैं। वैसे तो सभी देवी-देवताओं की प्रतीक प्रतिमाओं के कहीं से भी दर्शन करो पुण्य प्राप्त होता है लेकिन भगवान विष्णु और श्री गणेश की पीठ के दर्शन करना शास्त्रों द्वारा मना किया गया है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु सभी दुखों को दूर करने वाले और सभी इच्छाओं को पूरा करने माने गए हैं। इनकी आराधना से भक्त के कई जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। विष्णुजी के दर्शन के संबंध में एक अनिवार्य नियम यह है कि इनकी पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इनकी पीठ पर अधर्म का वास है।
पीठ के दर्शन न करने के संबंध में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की एक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण जरासंध से युद्ध कर रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी भगवान से युद्ध करने आ पहुंचा। कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुंचकर ललकारने लगा। तब श्रीकृष्ण वहां से भाग निकले। इस तरह रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़ पड़ा। जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। इस तरह भगवान रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते जब कि पुण्य का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्णा की पीठ देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म बढऩे लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है। जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण एक गुफा में चले गए। जहां मुचुकुंद नामक राजा निद्रासन में था। मुचुकुंद को देवराज इंद्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति राजा को निंद से जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह भस्म हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही राक्षस वहीं भस्म हो गया।
अत: भगवान श्री हरि की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए क्योंकि इससे हमारे पुण्य कर्म का प्रभाव कम होता है और अधर्म बढ़ता है। विष्णुजी के हमेशा ही मुख की ओर से ही दर्शन करें। यदि भूलवश उनकी पीठ के दर्शन हो जाते हैं और भगवान से क्षमा याचना करनी चाहिए। शास्त्रों के अनुसार इस पाप से मुक्ति के लिए कठिन चांद्रायण व्रत करना होता है। इस व्रत के कई नियम बताए गए हैं। जैसे-जैसे चंद्र घटता जाता है ठीक उसी प्रकार व्रती को खान-पान में कटौती करना होती है और अमावस्या के दिन निराहार रहना पड़ता है। अमावस्या के बाद जैसे-जैसे चांद बढ़ता है ठीक उसी प्रकार खान-पान में बढ़ोतरी की जानी चाहिए और पूर्णिमा के बाद यह व्रत पूर्ण हो जाता है। ऐसा करने पर भक्त की आराधना से श्री हरि अतिप्रसन्न होते हैं और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं।

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