मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

भागवत-२२४ ...ताकि रिश्ते में कोई कड़वाहट ना रहे

यदुवंशशिरोमणे! यही रुक्मिणीजी के अत्यंत गोपनीय संदेश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूं।श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि में ही है, सारथी को आज्ञा दी कि 'दारुक ! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओÓ। दारुक भगवान् के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुश्प और बलाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान् के सामने खड़ा हो गया।
शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मण देवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त देश से विदर्भ देश में जा पहुंचे।कुण्डिन नरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवष अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिए विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे। चेदिनरेश राजा दमघोश ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिए मन्त्रज्ञ ब्राह्मणों से अपने पुत्र के विवाह संबंधी मंगलकृत्य कराए। उस बारात में शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्डक आदि शिशुपाल के सहस्त्रों मित्र नरपति आए थे।
वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आए थे। उन्होंने अपने-अपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण-बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हरने की चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिए थे। शिशुपाल की सेना ने श्रीकृष्ण का पीछा किया किन्तु यादव सेना ने उनका मार्ग अवरुद्ध कर दिया। सब लौट आए किन्तु रुकमणि के भाई रूक्मी ने प्रतिज्ञा की कि जब तक वह श्रीकृष्ण से प्रतिशोध नहीं ले लेगा, तब तक वह अपनी नगरी कुंडनपुर में प्रवेश नहीं करेगा। श्रीकृष्ण का पीछा किया। श्रीकृष्ण पर प्रहार किया। श्रीकृष्ण ने निषस्त्र और नि:सैन्य कर दिया किन्तु उसने पराजय स्वीकार नहीं की। अन्त में श्रीकृष्ण उसका संहार करने लगे कि रूक्मी की बहन रुकमणि ने श्रीकृष्ण को रोक दिया। आप परम् बलवान् हैं। परन्तु कल्याण स्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैया को मारना आपके योग्य काम नहीं है। तब भगवान् श्रीकृश्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बांध दिया और उसकी दाढ़ी-मूंछ तथा केश कई जगह से मूंड कर उसे कुरूप बना दिया।
शक्तिमान् भगवान् बलरामजी को बड़ी दया आई और उन्होंने उसके बंधन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्ण ने कहा-कृष्ण तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हम लोगों के योग्य नहीं है। अपने संबंधी की दाढ़ी-मूंछ मूंडकर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकार का वध ही है। इसके बाद बलरामजी ने रुक्मिणी को संबोधन करके कहा-साध्वी! तुम्हारे भाई का रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हम लोगों से बुरा न मानना, क्योंकि जीव को सुख-दुख देने वाला कोई दूसरा नहीं है।
उसे तो अपने ही कर्म का फल भोगना पड़ता है। बलरामजी ने परिवार में आने वाली नई बहू के प्रति सावधानी और संवेदना रखी। सद्पुरुषों का स्वभाव ऐसा ही होता है, बलराम ने परिस्थिति को संभाल लिया और रुक्मिणी के मन में भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुराग्रह को पहले ही मिटा दिया। गृहस्थी में यह आवश्यक है अगर रिश्ते की शुरुआत में ही मन में कोई मैल हो तो रिश्ता ज्यादा मधुर नहीं रह सकता। कई बार ऐसे रिष्ते जल्दी ही टूट भी जाते हैं। अत: अगर आप गृहस्थी में हैं तो अपने जीवन साथी के प्रति कोई मैल या दुराग्रह न रखें।

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