बुधवार, 6 अप्रैल 2011

भागवत २२५: जरूरत है तो सिर्फ सच्ची भावना की

भक्ति और प्रेम के सामने यह सबसे बड़ी कठिनाई है। जब मन भगवान में लीन होना चाहता है तो अन्य इन्द्रियां इसे विकारों में भटकाने की कोशिश करती हैं। मन तटस्थ हो तो विकार हावी नहीं होते लेकिन अगर मन ही डगमगा जाए तो भगवान दूर भी हो सकते हैं। रुक्मिणीजी मन हैं। वे परमात्मा में लीन रहना चाहती हैं लेकिन इन्द्रियां उन्हें विकारों की ओर ले जा रही हैं।
परमात्मा अकेला है और शिशुपाल आदि विकार पूरी सेना हैं। लेकिन मन यानी रुक्मिणी केवल भगवान में लगी हैं। सो परमात्मा स्वयं उसके द्वार पर खड़े हो गए हैं।विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान् बलरामजी को लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिए चले गए हैं।
तब उन्हें वहां लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशंका हुई। यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बलविक्रम जानते थे फिर भी भ्रातृ स्नेह से उनका हृदय भर आयाए वे तुरंत ही हाथी घोड़े रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिए चल पड़े।इधर परम्सुंदरी रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण की तो कौन कहे अभी ब्राह्मण देवता भी नहीं लौटे वे बड़ी चिंता में पड़ गईं।
रुक्मिणीजी भगवान नाम को मंत्र बनाकर जपने लगी थीं। थोड़ा मंत्र को समझें।मंत्रों की संख्या असंख्य है। मंत्रों का अपना विज्ञान है। किसी ग्रंथ में पढ़कर या किसी से सुनकर मंत्र का जप करना उचित नहीं इससे वांछित लाभ के स्थान पर हानि की पूरी संभावना रहती हैए वैसे भगवान का नाम सदैव मंगलकारी होता है। वही नाम यदि मंत्र रूप में स्वीकार किया जाए तो जपकर्ता के नामए राशि के अनुसार तिथिवार नक्षत्र योगवरन् लाभ और सिद्धिदायक होता है। समर्थ गुरु के न मिलने तक क्या जप न किया जाए यह प्रश्न सहज की मानस में उठता है।
शुद्ध भावना के साथ निष्काम भाव से प्रभु का नाम फिर जो हो सतत् लेने से आत्मदर्शन हो जाता है और वह समय भी आ जाता है जब गुरु स्वयं शिष्य को खोजकर आ जाते हैं। यहां मंत्र सिद्धि के झमेले में न पड़कर सीधे ईश्वर अर्पण की भावना से जप करें तो कोई भी नाम उतना ही काम करेगा जितना की कोई महामंत्र।

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