सोमवार, 9 मई 2011

भागवत २५०

बस मन लगाकर कीजिए अपना काम
पं.विजयशंकर मेहता
जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गए हुए थे, तब पीछे से कुरू देश के राजा पौण्ड्रक ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि भगवान वासुदेव मैं हूं। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा। पौण्ड्रक का दूत द्वारिका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का संदेश कह सुनाया। यदुवंशी! तुमने मुर्खतावश मेरे चिन्ह धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो तो मुझे से युद्ध करो।
भगवान श्रीकृष्ण ने रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह करुश का राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराज के पास रहता था। काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अत: वह भी उसकी सहायता करने के लिए तीन अक्षैहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। यह प्रसंग बताता है जीवन में कई लोग ऐसी भूल कर बैठते हैं। स्वयं को भगवान मान लेना यानी अहंकार को आमंत्रण देना। अहंकार बाधा है प्रभु मिलन में। अहं भाव निष्कामता से ही दूर होगा। इसे समझा जाए। इस सूत्र में विपाक का उल्लेख भी विचारणीय है। कर्म जब परिपक्व हो प्रारब्ध बन जाते हैं और वे फल देने योग्य बन जाते हैं उस प्रक्रिया को विपाक की संज्ञा दी गई। अभ्यासरत साधक या भक्त के लिए आवश्यक है कि सारा आध्यात्म पथ पर चलने के दौरान बन्धनों से मुक्त होते हुए प्रारब्ध संचित न होने दें। पूर्व संस्कार सरल हों और नए न निर्मित हों साधन या भक्ति का लक्ष्य होता है। जब शून्य अवस्था को वह प्राप्त कर पाता है, तब ही मन या चित्त स्थिर और निर्मल हो पाता है। कठिनाई यह है कि कर्म किए बिना नहीं रहा जा सकता, कर्म फल न मिले इसके लिए गीता में युक्त स्पष्ट उल्लेखित है। ''अभ्यासेऽप्य समर्थोऽसि कत्कर्मरयो भव। भदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्ति द्विमवाम्यसि।।
यदि ऐसे अभ्यास में भी तू असमर्थ है तो जो कर्म करे, मेरे निमित्त कर, उनका फल मेरे अर्पण करता जा अर्थात् ईश्वर प्रीत्यर्थ सब कार्य कर। मेरे निमित्त सब कर्म करते रहने से भी तू उपरोक्त सिद्धि प्राप्त कर लेगा, वर्णित है मन मेरे में लगने लगेगा और बुद्धि भगवत्मयी हो जाएगी। इसे ब्रम्हभाव में स्थित जीव की स्थिति कहा जा सकता है। जब कर्म ईश्वर अर्पण हो जाते हैं, तब सबकुछ ''ईश्वर प्रणिधान के अंतर्गत आकर उच्चतम् स्थिति को प्राप्त साधक या भक्त आध्यात्मिकता की उस भूमिका में आ जाता है जहां से फिर वापसी नहीं होती है।

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