बुधवार, 18 मई 2011

अगर मौत के भय से होना हो आजाद...

मनुष्य को मनुष्य बनाना एक कला है जिसे भारतीय संस्कृति ने बहुत सुंदर तरीके से सजाया है। जन्म होना और मृत्यु होना इसके बीच का जो जीवन है उसे संवारने की संभावना परमात्मा ने सबको समान दी है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं अपने-अपने तरीके से सब लोग शक्ति सम्पन्न होते जाते हैं, लेकिन कुछ बातें सबमें समान होती हैं।
इनमें से एक है भीतरी अशांति। सांसारिक रूप से समर्थ और असमर्थ दोनों ही तरह के लोग भीतर से समान रूप से अशांत पाए जाते हैं। इसलिए अध्यात्म की जरूरत जीवन में जरूरी हो जाती है। अपने भीतर उतरते ही आदमी एक ऐसे निराकार रूप से परिचित होता है जिसका नाम परमात्मा है। जो अपने भीतर के भगवान से परिचित हो जाता है उसके बाहर का मामला बदल जाता है और यहीं से मनुष्य, मनुष्य बनने लगता है।
कुछ लोग एक बार गुरुनानक को ढूंढ रहे थे। पता लगा वे मरघट की ओर गए हैं, सब चौंक गए। नानक जीते जी वहां क्यों गए? नानक का जवाब था जो मरघट पर जीते जी पहुंच गया, फिर वह कभी नहीं मरता। जिसे हमने संसार का घर-परिवार कहा है वह एक दिन मरकर रहेगा और जिसने मरघट पर जीना सीख लिया उसे कोई नहीं मार सकेगा।
नानक की बात आध्यात्मिक लगती है, पर शहीद भगतसिंह जैसे लोगों ने इसी आध्यात्मिक दर्शन को जीवन में क्या गजब उतारा है। कोई फांसी का फंदा भगतसिंह को नहीं मार सका। नानक की भाषा में भगतसिंह और उनके साथी तो पहले से ही मरघट पर पहुंच चुके थे और इसीलिए वे आज भी जीवित हैं। हम अपने भीतर उतरकर अपने परमात्मा से परिचित होते ही जीवन की बाहरी परिस्थितियों के नए अर्थ जान लेंगे।
थोड़ी देर ध्यान करें स्वयं का और ऐसे महान् लोगों का जो हमें मनुष्य का मनुष्य बनना सिखा गए।
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