बुधवार, 18 मई 2011

भागवत २५६

कैसी होनी चाहिए गृहस्थी?
पं. विजयशंकर मेहता
एक बार रानियों के बीच नारदजी रूक्मिणीजी के महल में पहुंचे। वे सोचने लगे- यह कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ही शरीर से एक ही समय सोलह हजार महलों में अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया। देवर्षि नारद इस उत्सुकता से प्रेरित होकर भगवान् की लीला देखने के लिए द्वारिका आ पहुंचे। वहां के उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों से परिपूर्ण थे।
यह प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, जो लोग संसारी जीवन को दूभर मानते हैं उन्हें इससे सीख लेनी चाहिए। गृहस्थी किस तरह से चलाई जाती है भगवान् कृष्ण से सीखा जाए। 16 हजार रानियों के साथ भगवान् खुशी-खुशी रह रहे हैं, किसी की कोई शिकायत नहीं, ना ही कोई झगड़ा। सब प्रसन्न हैं। भगवान सभी को खुष रखे हुए हैं।
उसके राज-पथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियां, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओं के रहने के स्थान, सभा-भवन और देव-मंदिरों के कारण उसका सौंदर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों चौक, गली और दरवाजों पर छिड़काव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियां और बड़े-बड़े झण्डे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तों पर धूप नहीं आ पाती थी। उसी द्वारिका नगरी में भगवान् श्रीकृष्ण का बहुत ही सुन्दर अन्त:पुर था। उस अन्त:पुर (निवास) में भगवान् की रानियों के सोलह हजार से अधिक महल शोभायमान थे, उनमें से एक बड़े भवन में देवर्षि नारदजी ने प्रवेश किया।
देवर्षि नारदजी ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस महल की स्वामिनी रुक्मिणीजी के साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान् को सोने की डांडी वाले चंवर से हवा कर रही हैं।भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलंग से सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारद के युगलचरणों में मुकुटयुक्त सिर से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसन पर बैठाया। शास्त्रोक्त विधि से देवर्र्षि शिरोमणि नारद की पूजा की।भगवान् भी नारद के मन की बात ताड़ गए। उन्होंने नारदजी को बिल्कुल भी भान नहीं होने दिया। पूरा स्वागत सत्कार किया। जैसा कि ब्राह्मण या ऋषि का होना चाहिए।
इसके बाद देवर्षि नारदजी श्रीकृष्ण की योगमाया का रहस्य जानने के लिए उनकी दूसरी पत्नी के महल में गए।
वहां उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिय और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहां भी भगवान् ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसन पर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्ति से उनकी अर्चना-पूजा की। अब नारदजी का सिर चकराने लगा। भगवान के चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था कि अभी रुक्मिणी के महल में ही आपसे भेंट हुई। नारदजी भगवान की योगमाया को समझने आए थे। खुद ही माया में उलझ कर रह गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। अब तो बस एक महल से दूसरे महल में घूमने लगे। भगवान हर जगह अलग-अलग रूप में दिख रहे थे। उस महल में भी देवर्षि नारद ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को दुलार रहे हैं। www.bhaskar.com

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