गुरुवार, 5 मई 2011

श्मशान... जो एक बार गया बस वहीं बस गया

अक्सर लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि गृहस्थ जीवन श्रेष्ठ है या सन्यास? एक सांसारिक व्यक्ति और और सन्यासी में सबसे बड़ा अंतर क्या है? देह उनके पास भी है, शरीर हमारे पास भी है। फर्क यह है कि उनके लिए शरीर धर्मशाला की तरह है और हमने स्थाई मुकाम बना लिया है। आइये इस बात की गहराई को सरलता से जानने के लिये चलते हैं एक सच्चे वाकये की तरफ....
इब्राहिम के जीवन की एक घटना है। उनकी कुटिया एक ऐसे मोड़ पर थी जहां से बस्ती और मरघट दोनों के रास्ते निकलते थे। आने-जाने वाले राहगीर उनसे रास्ता पूछा करते थे। फकीरों की जुबां भी निराली होती है लेकिन होती है अर्थभरी। वे लोगों को बस्ती किधर है यह पूछने पर जिस रास्ते पर भेजते वह रास्ता मरघट का होता। और मरघट जाने वालों को रिहायशी इलाके में रवाना कर देते। बाद में लोग आकर इनसे झगड़ते।
इब्राहिम का जवाब होता था कि मेरी नजर में मरघट एक ऐसी बस्ती है जहां एक बार जो गया वह हमेशा के लिए बस गया। वहां कोई उजाड़ नहीं होता, लेकिन बस्ती वह जगह है जहां कोई स्थाई बस नहीं सकता। फकीरों की नजर में जिसको हम रहने की जगह कहते हैं उसको वह श्मशान कहेंगे। इसीलिए देह के प्रति उनकी नजर अस्थाई निवास की तरह होती है। मैं शरीर नहीं हूँ यह भाव यहीं से जन्मता है। इसीलिए जब बीमारी आती है तो संत, महात्मा, फकीर यह मानकर चलते हैं बीमारी का लेना-देना शरीर से है मुझसे नहीं है और वह दूर खड़े होकर शरीर और बीमारी दोनों को देखते हैं। इसी साक्षी भाव में बड़े से बड़ा भाव छुपा है।

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