बुधवार, 4 मई 2011

भागवत २४३-२४४

...क्योंकि भरोसा ही सबकुछ है
पं.विजयशंकर मेहता
अर्जुन भगवान के चले जाने के बाद रथ की प्रतिक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि मातलि दिव्य रथ की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि सातलि दिव्य रथ लेकर वहां उपस्थित हुआ। उस रथ की उज्जवल क्रंाति से आकाश में अंधेरा मिट गया। बादल तितर बितर हो रहे थे।
भीषण ध्वनि से दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थी। उसकी कांति दिव्य थी। रथ में तलवार, शक्ति, गदाएं, तेजस्वी, भाले, वज्र पहियोंवाली, तोपें आदि दस हजार हवा की रफ्तार से चलने वाले घोड़े थे। उस दिव्य रथ की चमक से आंखे चौंधिया जाती थी। भीषण युद्ध हुआ। शिव और कृष्ण को आमने-सामने देखकर देवताओं में हलचल मच गई। कृष्ण ने अपने चक्र से बाणासुर की दोनों भुजाएं काट दी। बाणासुर की सेना में कोहराम मच गया। बाणासुर बहुभुज था, दो भुजाएं कटने के बाद भी उसके शरीर पर चार और भुजाएं थीं। युद्ध में कोई कम नहीं था। तब भगवान शिव ने बाणासुर की प्राण रक्षा का उपाय किया।
जब भगवान् शंकर ने देखा कि बाणासुर की भुजाएं कट रही हैं तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और स्तुति करने लगे।शंकरजी ने कहा-भगवान आप वेदमन्त्रों में तात्पर्य रूप से छिपे हुए परमज्योति स्वरूप परब्रम्ह हैं। शुद्ध हृदय महात्मागण आपके आकाश के समान सर्वव्यापक और निर्विकार स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं।भगवान आपकी माया से मोहित होकर लोग स्त्री-पुरुष, देह-गेह आदि में आसक्त हो जाते हैं और फिर दुख के अपार सागर में डूबने-उतरने लगते हैं।
हे प्रभो! हम सब संसार से मुक्त होने के लिए आपका भजन करते हैं। देव! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रहलाद पर आपका कृपा प्रसाद है, वैसा ही आप इस पर भी करें।श्रीकृष्ण ने कहा-भगवान आपकी बात मानकर जैसा आप चाहते हैं मैं इसे निर्भय किए देता हूं। आपने पहले इसके संबंध में जैसा निश्चय किया था मैंने इसकी भुजाएं काटकर उसी का अनुमोदन किया है। मैं जानता हूं कि बाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र है।
इसलिए मैं भी इसका वध नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने प्रहलाद को वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वंश में पैदा होने वाले किसी भी दैत्य का वध नहीं करूंगा। इसका घमंड चूर करने के लिए ही मैंने इसकी भुजाएं काट दी हैं। अब इसकी चार भुजाएं बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदों में मुख्य होगा। अब इसको किसी से किसी प्रकार का भय नहीं हैभगवान कई पीढिय़ों तक अपने भक्तों का भला करते हैं। परमात्मा भविष्य के प्रति एक बड़ा आश्वासन होते हैं। भरोसा ही भक्त की पूंजी है।

यह शरीर सिर्फ एक बंधन है क्योंकि..
साम्यता होने के साथ-साथ आत्मा सगुण रूप होकर माया रूप, उपाधि सहित, चेतन अशुद्ध बन वे ईश्वर सगुण ब्रम्ह बन अवतरित होते हैं। अवतारवाद इस तथ्य की पुष्टिकरता है कि सगुण रूप ने परात्पर राम, जगद्गुरु कृष्ण, महाबुद्ध,
पैगम्बर, देवदूत या महात्मा बन लीला करने के लिए प्रकट होते हैं। महत्त्व से युक्त होकर वे सगुण आदि देव ब्रम्हा, विष्णु, महेश आदि बनते हैं और अणु बुद्धि से युक्त होकर जीवात्मा बनते हैं। विस्मयकारक चिंतन तो यह है कि एक ही समय में भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। यहां कपितय अवधारणाओं की संक्षिप्त व्याख्या ली जा रही है।
जीवात्मा-देह, इन्द्रियां, अंत:करण, प्राण, अविद्यांश(बुद्धि) इनमें मैं, अपने की भावना करने वाला आत्मा ही जीव कहलाता है। वास्तव में जीव नाम का कोई आत्मा से अलग है ही नहीं। मैं देहादि नहीं शुद्धात्मा हूं, सत्य स्वरूप, परमानंद स्वरूप व ज्ञान स्वरूप हूं। यह भावना सिद्ध करने से जीव के बंधन से कटकर आत्मा अपने मुक्त स्वरूप से एक रूप हो सकेगी जो कि पिंड में व्याप्त वह जीव और जो ब्रम्हाण्ड में व्याप्त वह परब्रम्ह या शिव कहलाता है।
माया-बन्धन ही माया है। सर्वथा मुक्त आत्मा बंधन में न होने पर भी जीव रूप से अज्ञानवश अपने को बंधन में समझता है। देहाभिमानी जीव ही देह धर्म के मिथ्या धर्मों से बंधा हुआ अनुभव करता है। यह अनुभव चाहे मिथ्या ही सही मोह का जनक होता है। माया के बंधन में जगत के नाना प्रकार के सुख और दुख अनुभव करता हुआ जीव अपने को अपने अंष परब्रम्ह से पृथक मानकर द्वैत भावना से युक्त कम्पित रहता है।
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