गुरुवार, 5 मई 2011

भागवत २४५

कैसे हम अनजाने में ही पाप कर बैठते हैं?
पं.विजयशंकर मेहता
श्रीकृष्ण कुएं पर आए। उन्होंने बाएं हाथ से उसको बाहर निकाल लिया। भगवान् श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट रूप जाता रहा और वह एक देवता के रूप में परिणत हो गया। अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सोने के समान चमक रहा था और उसके शरीर पर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुपों के हार शोभा पा रहे थे। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुष को गिरगिट योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारण को मालूम हो जाए इसलिए उन्होंने दिव्य पुरुष से पूछा-महाभाग! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन? मैं तो ऐसा समझता हूं कि तुम आवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो।

किस कर्म के फल से तुम्हें इस योनि में आना पड़ा था? वास्तव में तुम इसके योग्य नहीं हो। हम लोग तुम्हारा वृतांत जानना चाहते हैं। यदि तुम हम लोगों को वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो।
उस पुरुष ने जो कथा बताई वह हमारे जीवन में बड़ी उपयोगी है। कैसे हम पुण्य में भी अनजाने ही कोई पाप कर बैठते हैं। जब भी पुण्य कर रहे हों तो सजग रहें कहीं आपका किया पुण्य किसी का अहित तो नहीं कर रहा है।उसने कहा-मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूं। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा।पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्र्षा में जितनी जल की धाराएं गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएं दान की थीं।
एक दिन किसी दान न लेने वाले, तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिल्कुल पता न चला। इसलिए मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया। जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा-यह गौ मेरी है। दान ले जाने वाले ब्राह्मण ने कहा यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है।
वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिए मेरे पास आए। एक ने कहा-यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है और दूसरे ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है। उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया। मैंने धर्म-संकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय विनय की और कहा कि मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएं दूंगा। आप लोग मुझे यह गाय दे दीजिए। मैं आप लोगों का सेवक हूं। मुझसे अनजान में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आप लोग कृपा कीजिए और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिरने से बचा लीजिए।

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