बुधवार, 13 जुलाई 2011

भागवत 311: इन दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है...

अर्जुन को भगवान् ने दृष्टि दी तब ही वह परम् तेजोमय के दर्शन कर सका (11वां अध्याय)। यह कृपा उन्होंने महापुरुष कृष्ण रूप में अवतार ग्रहण करके की थी। जब कोई महापुरुष प्रभु शक्ति सम्पन्न हो कृपा पाता है तब ही सम्भव होता है, किन्तु इस निमित्त धरातल दैवी गुणों से पुष्ट होना आवश्यक है, इसे हम अभ्यास की कोटि में रचाना उपयुक्त समझते हैं। सतत् अभ्यास अटूट साधन के माध्यम से होता है। भजन, प्रार्थना, ध्यान, स्वाध्याय, पूजा इत्यादि साधन के साध्य अंग हैं। यत्न साध्यों की सहज, परिणिति हेतु जो अभ्यास किया जाता है उसमें महापुरुष या गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।
देवकीजी भगवान से कहती हैं कि मेरे सात पुत्रों को कंस ने मारा तू ले आ। भगवान उन सातों पुत्रों को लाकर मिलाते हैं। भगवान ने यमराज को आदेश दिया कि मेरे सारे मृत भाइयों को लौटा लाओ, मेरी माता की आज्ञा है, यह मेरा निर्देश है कि इनके कोई कर्म-प्रारब्ध या किसी दोष का ध्यान न रखा जाए। यमराज ने ऐसा ही किया। ये दूसरी बार था जब भगवान ने अपने किसी के लिए सृष्टि के नियम भी बदल दिए। उनको जीवित कर दिया जिन्हें मरे को सालों बीत गए थे। यहां भगवान ने दो बातों का संकेत दिया है।
इसे समझना बहुत जरूरी है। पहली बार भगवान ने अपने गुरु ऋषि सांदीपनि के पुत्र को यमराज से मांगा था। वह भी बहुत पहले मारा जा चुका था, दूसरी बार अपने भाइयों को जीवित किया। सृष्टि के नियम बदल दिए। यहां जो दो संकेत हैं वे भी स्पष्ट हैं। पहला जीवन में गुरु और माता का महत्व। गुरु विद्यार्थी को माता की तरह संवारता है और माता बच्चे की पहली गुरु होती है। दोनों का पद समान है, दोनों की महिमा भी एक सी है। दोनों का जीवन में समान महत्व है और दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है।

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