शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

भागवत 312-313

जीना इसी का नाम है...
कृष्ण ने अपने जीवन में उन दोनों के महत्व को भलीभांति समझा है। गुरु से शिक्षा ली, शिक्षा अमूल्य थी सो उसका मूल्य भी ऐसा चुकाया जो इतिहास बन गया। गुरु के मृत पुत्र को सालों बाद यमराज से ले आए। फिर माता के उन पुत्रों को जीवित कर दिया जिन्हें कंस ने मार दिया था। माता ने कृष्ण के लिए लाखों कष्ट सहे। अपने सात पुत्रों को अपनी आंखों के सामने मरते देखा। अब कृष्ण की बारी थी, अपनी माता के उस ऋण को चुकाने की। माता ने इच्छा की और कृष्ण ने उसे क्षण भर में पूरा कर दिया। माता-पिता और गुरु के लिए जीवन में अगर कुछ भी करना पड़े, उसे कर दीजिए। उनके लिए किया गया कोई कार्य निष्फल नहीं जाता। कृष्ण ने इस घटना में जो संदेष दिया वह भी बहुत अद्भुत है। कई जन्मों की तपस्या के बाद देवकी ने कृष्ण को पुत्र रूप में पाया था। वह विष्णु की अनन्य भक्त थीं।
वसुदेव भी उसके साथ तपस्या में लीन थे। दोनों की एक ही इच्छा थी भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने की। भगवान को ही उन्होंने अपना सर्वस्व दे दिया। हर जन्म विष्णु भक्ति के लिए ही था। सो अब भगवान उनके घर प्रकट हुए। यह संकेत है कि अगर हम भगवान की भक्ति में खो जाते हैं तो भगवान भी फिर हमारे लिए किसी नियम या सिद्धांत में बंधकर नहीं रहता। वह अपने भक्त के लिए हर सीमा से ऊपर चला जाता है। सृष्टि का नियम भी बदलना पड़े तो, बदलता है। कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को इसी भक्ति का फल दिया है।
सांदीपनि ने भी बरसों तक तप कर शिव को प्रसन्न किया। महाकाल शिव जब आए तो उन्होंने वरदान दिया कि खुद नारायण उनके शिष्य बनेंगे। अवंतिका की पावन भूमि पर कृष्ण षिक्षा ग्रहण करने आएंगे। दूसरा वरदान दिया कि अवंति क्षेत्र में कभी सूखा नहीं पड़ेगा, अकाल नहीं पड़ेगा। सांदीपनि ने कृष्ण को शिष्य स्वीकार किया। वे जानते थे कि जगत् गुरु नारायण ही उनके शिष्य हैं। उन्होंने कृष्ण की क्षमता देख कर ही उनसे अपना मृत पुत्र वापस मांगा था।कथा आगे गति पकड़ रही है। कृश्ण ने जीवन की गति की शिक्षा दी है, उन्होंने बताया है कि जीवन में हर दिन एक नई चुनौती आपके सामने आएगी और हर दिन आपको संघर्षकरना है। जीवन में आराम नहीं है। आराम तो केवल भक्ति में है।

भगवान कृष्ण ने अपनी बहन का ही हरण क्यों करवा दिया?
कथा आगे गति पकड़ रही है। कृष्ण ने जीवन की गति की शिक्षा दी है, उन्होंने बताया है कि जीवन में लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि भगवान ने अपनी ही बहिन का अपहरण क्यों करवाया? सुभद्रा हरण का प्रसंग व्यक्ति की निजी स्तंत्रता से जुड़ा है। भगवान कहते हैं सबको अपने स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए। सुभद्रा पर बलरामजी ने दुर्योधन से विवाह का दबाव बनाया था
बलराम बहुत सीधे थे, दुर्योधन ने उन्हें अपना गुरु बना लिया, गदा युद्ध सीखा। बलराम दुर्योधन की इस चाल को समझ नहीं पाए। वे समझते थे कि दुर्योधन सहज ही मुझ पर स्नेह रखता है। वह योद्धा भी था और राजपुत्र भी, सो उन्होंने सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने का मन बना लिया।
कृष्ण दुर्योधन का भविश्य जानते थे, वे ये भी जानते थे कि सुभद्रा अर्जुन को पसंद करती है।
सुभद्रा लेकिन बलरामजी का विरोध करना भी नहीं चाहती थीं और दुर्योधन से विवाह भी नहीं करना था, ऐसे में केवल कृष्ण ही थे जिससे वह अपने मन की बात कह सकती थीं। कृष्ण सुभद्रा की मनोदशा को समझ गए। कथा आगे बढ़ती है-परीक्षित ने प्रश्न पूछा शुकदेवजी से मेरे दादा अर्जुन ने यह विवाह किस प्रकार किया था।एक बार अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए प्रभासक्षेत्र पहुंचे। वहां उन्होंने यह सुना कि बलरामजी सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषय में सहमत नहीं हैं।
अब अर्जुन के मन में सुभद्रा को पाने की इच्छा जग आई। वे त्रिदण्डी वैष्णव का वेष धारण करके द्वारका पहुंचे। वे वहां वर्षाकाल में चार महीने तक रहे। द्वारका वालों और बलरामजी को यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं। एक दिन बलरामजी ने आतिथ्य के लिए उन्हें निमंत्रित किया और उनको वे अपने घर ले आए। अर्जुन ने भोजन के समय वहां विवाह योग्य सुभद्रा को देखा।
उन्होंने उसे पत्नी बनाने का निश्चय कर लिया। सुभद्रा ने भी मन में उन्हीं को पति बनाने का निश्चय किया। कृष्ण की सहमति पहले ही थी सो कोई डर भी नहीं था। कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को भी समझाया कि अर्जुन का भविष्य धर्ममय है, दुर्योधन अधर्मी है और एक दिन उसका अंत बहुत बुरा ही होगा। वे भी सहमत हो गए।

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